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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्पामिनखनक्षत्रविज़म्भाय नभस्यते । नमज्जगत्त्रयीपालकुन्तलाभोगडम्बरः ॥ ४ ॥
बालारुणायते यस्य पादद्वितयमण्डलम् । प्रहनिविपाधीशकिरीटोदयकोटिपु ॥५॥ नखोज्जम्भकराभोगकेसर यस्कमलम् । नम्रामरवधूनेनदीबिशारत्रम्जा से ६ ॥ यस्पदस्मृतिसंभारा वनत्रयनायकाः । वाल्मनो देवसिखोना सिद्धादशादिवेशते ॥४॥ तस्मै सत्कीर्तिपूर्ताय विश्वदृश्बैकमूर्तये । नमः शमसमुद्राय जिनेन्द्राय पुनः पुनः A ॥८॥ अपि च । भूर्भुवः स्वस्त्रयं वेलावलकुल्लायते । अपाराय नमस्तस्मै जिनबोधपयोधये ॥९॥
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लिए यथेष्ट स्वर्गश्री व मुक्तिश्री प्रदान करे ॥ ३॥ जिनके चरणों के नखरूप नक्षत्रों के प्रसार के लिए नमस्कार करते हुए तीन लोक के स्वामियों-इन्द्र व नरेन्द्रादि--के केश-समूह की विस्तृत शोभा आकाश के समान आचरण करती है। भाषार्थ- भगवान के चरणकमलों में नत्रीभूत इन्द्रादिकों की विस्तृत केशराशि की परिपूर्ण शोभा आकाश के समान है. जिसमें भगवान् की नवपंक्ति नक्षत्रपंक्ति के समान चमकती हुई शोभायमान होरही है॥४॥ जिस जिनेन्द्र भगवान् के चरण-युगल का प्रतिबिम्ब, नमस्कार करते हुए तीन लोक के स्वामियों-इन्द्रादिकों के मुकुटरूप उदयाचल की शिखरों पर प्रातःकालीन सूर्य के समान पाचरण करता है: ॥५१] जिस जिनेन्द्र भगवान के चरण-युगल कमल के समान प्रतीत होते हैं, जिनमें भगवान के चरणों के नखों से फैलनेवाली किरणों का विस्ताररूप केसर ( पराग) वर्तमान है एवं जो नमस्कार करती हुई इन्द्राणी-श्रादि देवियों के नेत्ररूप जल से भरी हुई यावष्ठियों में खिल रहे है ॥६॥ जिस भगवान् जिनेन्द्र के चरणकमलों की स्मृति (ध्यान) की प्रचुरता से जो मानों-सिद्धपुरुष-ऋद्धिधारी योगी महापुरुष का वचन ही है, संसार के प्राणी तीनलोक के स्वामी-इन्द्र व नरेन्द्रादि-होते हुए उसप्रकार वचनसिद्धि, मनोसिद्धि व देवसिद्धि के स्वामी होजाते है, जिसप्रकार सिपरुष के पचन से वचन सिद्धि, मनोसिद्धि व देवसिद्धि के स्वामी होते हैं।॥७॥ ऐसे उस त्रैलोक्य-प्रसिद्ध जिनेन्द्र को बार-बार नमस्कार हो, जो प्रशस्त अथवा अबाधित कीर्ति से परिपूर्ण है, एवं जिनकी केवलज्ञानमयी मूर्ति ( स्वरूप ) अद्वितीय-बेजोड़-और विश्व के समस्त चराचर पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाली है एवं जो उत्तमक्षमा के अथवा ज्ञानावर यादि कर्मों के क्षय के समुद्र है 11८॥ भगवान के उस अपार केवलज्ञानरूप समुद्र के लिये नमस्कार हो, जिसमें तीन लोक ( पृथ्वीलोक, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक ) उसके मर्यादानीत बहाव को रोकनेवाले तटवर्ती या मध्यवर्ती पर्वत-समूह के समान श्राचरण करते हैं। भाषार्थ-भगवान के केवलज्ञान में अनन्त प्रैलोक्य को जानने की योग्यता-शक्ति--- वर्तमान है, उसमें अनेक सभ्यग्दर्शनादि गुणरूप रत्नों की राशि भरी हुई है, अतः उसमें समुद्र का आरोप किया जाने से रूपकालकार है और तीन लोकों को उसकी सीमातीत विकृति रोकने वाले पर्वत-समूह की सरशसा का निरूपण है, अतः उपमालकार है ॥९॥ प्रस्तुत काव्य के प्रारंभ में श्रुतकेवली गणधर देवों के प्रसिद्ध
१-उपमालकार। २-उपमालकार।
*-'पूर्ताय' इति ह. लि, सटि. ( क, ग, च, च,) प्रतिषु पाउः । पूरितच्छन्नयोः पूतं पूर्त खातादेकर्मणि : इति विश्वः ।
३-रूपक २ उपमालंकार। ४-रूपक व उपमालंकार । ५-उत्प्रेक्षालंकार वा उपमालंकार। ६-अतिशमालंकार A-लोक नं. ४ से ८ तक पंचदलोकों से कुलक समझना चाहिये ।