SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आजन्मसमभ्यस्ताच्छुकात्तकोत्तणादिव समास्याः । मसिसुरभेरभवदिद सूक्तिपयः सुकृतिना पुण्यैः ॥१४॥ याच एवं विशिष्शनामनन्यसमवृत्तयः । स्वस्यातिशायिन हेतुमातुः कान्ता लता हक ११८॥ वागर्थः कविसामय अयं सत्र वयं समम् । सर्वेषामेव वक्तृगां तृतीयं मिनशस्तिमम् ॥१९॥ लोको युक्तिः कलारन्दोऽलंकाराः समयागमाः । सर्वसाधारणाः सनिस्तीर्धमार्गा इस स्मृताः ॥२०॥ अर्थो नामिमतं शब्दं न शब्दोऽथ विगाहते । स्त्रीवन्धमिव मन्दस्य दुनोति कविता मनः ॥२१३ सूखी घास के समान जन्मपर्यन्त अभ्यास किये हुए ( पक्ष में भक्षण किये हुए ) दर्शनशास्त्र के कारण मेरी इस बुद्धिरूपी गाय से यह 'यशस्तिलकमहाकाव्य' रूप दूध विद्वानों के पुण्य से उत्पन्न हुआ॥ १७॥ जिसप्रकार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई अतिमनोहर शाखाएँ वृक्ष की इसप्रकार की विशेषता प्रकट करती हैं-'जिस वृक्ष की ऐसी विशेष मनोज्ञ शाखाएँ हैं, वह वृक्ष भी महान् होगा' इसीप्रकार विशिष्ट विद्वान कवियों की अनोखी य विशेषप्रौढ़ काव्य रचनाएँ भी उनके कवित्वगुण की इसप्रकार विशेषता-महानता-प्रकट करती है-'जिस कवि की ऐसी अनोखी व विशेषप्रौढ काव्यरचनाएँ हैं, वह कवि भी अनोखा, बहुश्रुत प्रौढ विद्वान् होगा ॥१८॥ काव्यरचना में निम्न प्रकार तीनतरह की कारणसामग्री की अपेक्षा होती है। १–शब्द २-अर्थ और ३- कवित्वशक्ति। उनमें से शुरू की दो शक्तियाँ समस्त कवियों में साधारण होती हैं. परन्तु तीसरी कवित्वशक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है॥१६॥ जिसप्रकार तीर्थों (गंगादि) के मार्ग सज्जनों द्वारा सर्वसाधारण माने गये है। अर्थात् गङ्गादि तीर्थों में ब्राह्मण और चाण्डाल सभी जाते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है, उसीप्रकार व्याकरण, तर्कशास्त्र, गीत-नृत्यादिकला, छन्दशास्त्र, अलङ्कार (शब्दालङ्कार व अर्थालङ्कार) एवं षड्दर्शन (जिन, जैमिनी, कपिल, काचर, चार्याक व बुद्धदर्शन ) अथवा ज्योतिष शास्त्र भी शिष्ट पुरुषों द्वारा सर्वसाधारण माने गये हैं। अर्थात् उनका अभ्यास भी सर्वसाधारण कर सकते हैं, उसमें कोई आपत्ति (दोष) नहीं है" ॥२०॥ मन्दः (मूर्ख) कवि की कविता का अर्थ-शब्द निरूपित पदार्थ- सही नहीं होता; क्योंकि उसका सही अर्थ के निरूपक शब्दों के साथ समन्वय-मिलान - नहीं होता और न उसके शब्द ही सही होते हैं। क्योंकि वे सही अर्थ में प्रविष्ट नहीं हो सकते यथार्थ अभिप्राय प्रकट नहीं कर सकते, इसलिए उसकी ऋषिता उसके मन को उसप्रकार सन्तापित-मलेशित करती है जिसप्रकार कमनीय कामिनियाँ मन्द (नपुंसक पुरुष या रोगी) का चित्त सन्तापित करती हैं। क्योंकि वह न तो उन्हें भोग सकता है और न उनसे आनन्द ही लूट सकता है ॥ २१॥ हमारी ऐसी धारणा है कि प्रस्तुत काव्य-यशस्तिलकपम्पू १-उपमा व रूमकालंकार होने से संकरालंकार । २-अनुमानालंकार। तथा चोक्तम्-संस्कारोत्थं स्वभावोत्थं सामथ्र्य द्विविध कवेः।। ___ तत्र शास्त्राधयं पूर्वमन्यदारमोहसंश्यं ॥१॥ यश की संस्कृत टीका से संकलित अर्थात कवित्वशक्ति दो प्रकार की होती है। -संस्कारोत्थ ( काव्यशास्त्र के अभ्यास से उत्पन)। और २-स्वभावोत्थ (स्वाभाधिर विचारशक्ति से उत्पन्न)। भावार्थ-प्रस्तुत कवित्वशक्तिीहीमाधिकता से करियों की काव्यरचनाएँ भी हीनापिक होती है। ३-अतिशयालंकार । ४-उपमालंकार । - मन्दो जनः अल्पकामो रोगी च, इ. लि. सटि. प्रति (क, घ) से संकलित । ५-उपमालंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy