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________________ प्रथम श्रश्वास दुर्जनानां विनोदाय बुधानां मतिमन्मने । मध्यस्थानां म मौनाय मन्ये काव्यमिदं भवेत् ॥ २३ ॥ सुकषिकामा धुर्वे प्रबन्ध सेवाविवृद्धपानाम् । विशुमम्यकन्दलीय भवतु रुचिर्मद्विधाभिधानाम् ॥ १३ ॥ न गर्थ पद्यमिति वा सो कुर्वीत गौरवम् । किन्तु किमन्यत् सुखमिंत्र क्रियाः ॥ ४ ॥ तएव कत्रो छोके येषां वचनगोचरः । पूर्वोऽपूर्वतामय यात्यपूर्वः सपूर्वताम् ॥ १॥ सापत्र सुकदेव वस्तिस्थामपि याः श्रुताः । भय म चैकान्तेन वकोक्ति: स्वभावास्याममेव वा । धान प्रीतये किन्तु इयं कान्ताजनेरिव ॥ २० ॥ नियमः कक्षा ५ दुर्जनों को कौतुकशाली (उत्कण्ठित) करता हुआ विद्वानों को बुद्धिमान बनाया और मध्यस्थ ( ईर्ष्यालु ) पुरुष भी इसे देखकर चुप्पी नहीं साधेंगे अर्थात् वे भी इसे अवश्य पढ़ेंगे || २२ || अच्छे कवियों-are श्रीहर्ष, माघ व कालिदास आदि के काव्यशास्त्रों की कर्णामृतप्राय रचना के बाद – अभ्यास- - से जिनकी जड़ता अत्यधिक बढ़ गई हैं, ऐसे विद्वानों को, हम सरीखों की काव्यरचनाओं - यशस्तिलक- आदि काव्यशास्त्रों में उसप्रकार रुचि उत्पन्न होवे, जिसप्रकार अत्यन्त मीठा खाने से उत्पन्न हुई गले की जड़ता दूर करने के लिए नीम के कोमल किसलयों (केम्पलों) के खाने में रुचि होती है। भावार्थ - जिसप्रकार नीम की कोपलों के भक्षण से, अत्यधिक मीठा खाने से उत्पन्न हुई गले की जड़ता ( बैठ जाना) दूर होजाती है उसीप्रकार अत्यधिक बौद्धिक परिश्रम करने से समझ 뀸 आनेलायक प्रस्तुत 'यशस्तिलक' काव्य के अभ्यास से भी उन विद्वानों की जड़ता नष्ट होजाती है, जो दूसरे कवियों के अतिशय मधुर, कोमल काव्य-शास्त्रों के पढ़ने से बौद्धिक परिश्रम न करने के कारण जड़ता युक्त होरहे थे * ॥ २३ ॥ प्रस्तुत 'यशस्तिलक' काव्य गद्यरूप अथवा पद्यरूप (छन्दोद्ध है, इतनामात्र कहने से यह सज्जनों द्वारा आदरणीय नहीं है, इसलिए इसकी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें उसप्रकार का परमानन्द लक्षण सुख वर्तमान है, जो कि वचनों के अगोचर होता हुआ भी स्वसंवेदनप्रत्यक्ष से प्रतीत है, जिस प्रकार स्त्रीसंभोग से अनिर्वचनीय लक्षण सुख होता है, जो कि स्वयं प्रत्यक्ष से प्रतीत है। सा सुख स्त्रियों के गद्य ( सरस वचनालाप | और पद्य ( स्पर्शन व आलिङ्गनादि ) से नहीं है ता || २४ || लोक में वे ही श्रेष्ठ कवि हैं, जिनकी काव्यरचनाओं में गुम्फित वस्तु ( काव्यवस्तु ) लोकप्रसिद्ध होने पर भी अपूर्व सी (कभी भी न सुनी-सी) मालूम होती है और अपूर्व प्रसिद्ध वस्तु भी अनुभूत -सी प्रतीत होती हुई चित्त में अपूर्व चमत्कार (उल्लास ) उत्पन्न कर देती है || २५ || अच्छे कवि को उन्हीं रचनाओं को प्रशस्त (श्रेष्ठ) समझनी चाहिए, जो सुनीजाकर पशुओं के चित में भी ( मनुष्यों का तो कहना ही क्या है) परमानन्द का क्षरण और प्रचुर रोमाना उत्पन्न करने में कारण हों ।। २६ ।। कत्रियों के काव्य, सर्वथा वकोक्ति ( चमत्कारपूर्ण उक्ति) प्रधान होने से अथवा स्वभावाख्यान - जाति नाम का अलङ्कार की मुख्यता से विद्वानों के चित्त को चमत्कृत - शासित नहीं करते किन्तु जब उक्त दोनों अलङ्कारों से अलङ्कृत होते है तभी विद्वानों के चित्त में उस प्रकार अपूर्व चमत्कार उल्लास - उत्पन्न करते हैं। जिसप्रकार रमणियाँ, तब तक केवल वकोक्तिचतुराई- पूर्ण कुटिल वचनालाप - मात्र से अथवा केवल स्वभावाख्यान ( लज्ञापूर्वक मनोवृति का अर्पण ) १-- अतिशयालंकार । २--उपमालंकार | ३ - उपमालंकार | ४- अतिशयालंकार। ५- तालंकार |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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