SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय आवास: २३७ है जब विजिगीषु की और शत्रुराजा की उक्त तीनों शक्तियों समान होती हैं और ३--दानिकाल-वह है जब विजिगीषु शत्रुभूत राजा से उक्त तीनों शक्तियों में हीनशक्तिवाला होता है। विजिगीषु को उक्त तीनों कालों में से पहिले उदयकाल में ही शत्रुराजा से युद्ध करना चाहिए। अर्थात् — जब विजिगीषु राजा शत्रुराजा से सैन्यशक्ति, खजाने की शक्ति व पराक्रम आदि से विशेष शक्तिशाली हो तब उसे शत्रुराजा से युद्ध करना चाहिए और बाकी के दोनों कालों में समता व हानिकाल में- युद्ध नहीं करना चाहिए । भाषार्थ - - प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि 'जो विजिगीषु शत्रु की अपेक्षा उक्त तीनों प्रकार को शक्तियों (प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति व उत्साहशक्ति) से अधिक शक्तिशाली है, वह उदयशाली होने के कारण श्रेष्ठ है; क्योंकि उसकी युद्ध में विजय होती है और जो उक्त तीनों शक्तियों से हीन है, वह जघन्य है, क्योंकि वह शत्रु से परास्त हो जाता है एवं जो उक्त तीनों शक्तियों में शत्रु के सदृश है, वह 'सम' है उसे भी शत्रुराजा से युद्ध नहीं करना चाहिए। गुरु विद्वान् का उद्धरण भी समान शक्तिवाले विजिगीषु को युद्ध करने का निषेध करता है। शत्रुराजा से हीनशक्तिवाले और अधिक शक्तिशाली विजिगीषु का कलस्य निर्देश करते हुए प्रस्तुत नीतिकार ने क्रमशः लिखा है कि 'हीनशक्तिवाले विजिगीषु को शत्रुराजा के लिए आर्थिक दंड देकर सन्धि कर लेनी चाहिए जब कि उसके द्वारा प्रतिज्ञा की हुई व्यवस्था में मर्यादा का उल्लंघन न हो । अर्थात् - शपथ - श्रादि खिलाकर भविष्य में विश्वासघात न करने का निश्चय करने के उपरान्त ही सन्धि करनी चाहिए अन्यथा नहीं ||१|| शुक्र * विद्वान ने भी हीनशक्तिवाले विजिगीषु को शत्रुराजा के लिए आर्थिक दंड देकर सन्धि करना बताया है || १|| यदि विजिगीषु शत्रुराजा से सैन्य य कोशशक्ति आदि में अधिक शक्तिशाली है और यदि उसकी सेना में क्षोभ नहीं है तब उसे शत्रु से युद्ध छेड़ देना चाहिए " ||१|| गुरु विज्ञान ने भी वलिष्ठ, विश्वासपात्र म विशेष सैन्यशाली विजिगीषु को युद्ध करने का निरूपण किया है। यदि विजिगीषु शत्रु द्वारा अपनी भविष्य की कुशलता का निश्चय कर ले कि शत्रु मुझे नष्ट नहीं करेगा और न मैं शत्रु को नष्ट करूँगा तब उसके साथ युद्ध न करके मित्रता कर लेनी चाहिए। जैमिनि विद्वान ने भी उदासीन शत्रुराजा के प्रति युद्ध करने का निषेध किया है। १. तथा च सोमदेवसूरिः शक्तित्रयोपचितो ज्यायान् शक्तित्रयापचितो दोनः समानशक्तित्रयः समः ॥१|| २. तथा च गुरुः---समेनापि न योद्धव्यं यद्युपायश्रमं भवेत् । अन्योन्याहति ? यो संगो द्वाभ्यां संजायते यतः ॥ १ ॥ नीतिवाक्यामृत ( भा. टी.) ४.३७२ व्यवहारसमुह देश से संगृहीतसम्पादक ३. तथा च सोमदेवसूरि :-- होयमानः पणवन्धेन सन्धिमुपेयात् यदि नास्ति परेषां विद्यतेऽर्थे मर्यादोल्लंघनम् ॥१॥ तथा च शुक्र:-- हीयमानेन दातव्यो दण्डः शत्रोजिगीषुणा । बल्युक्तेन यत्कार्यं तैः समं निधिनिर्निश्वयोः १ ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवसूरि :- अभ्युच्चीयमानः परं विक्कीयायदि नास्त्यात्मबलेषु क्षोभः ॥१॥ ६. तथा च गुरु: यदि स्थादधिकः शत्रोर्विजिगीषुर्निजेर्वलैः । क्षोमेन रहितैः कार्यः शत्रुणा सह विभदः ॥१॥ ७. तभा व सोमदेवसूरिः--न मां परो हन्तुं नाई परं इन्हें शक इत्यासीत यद्यायत्यामस्ति कुशलम् ॥ १॥ 4. तथा च जैमिनिः न विमहं स्वयं कुर्यादासीने परे स्थिते । बलाक्येनापि यो न स्यादायस्यां चेतिं धर्मं ॥१॥ ४.
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy