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________________ द्वितीय आश्वास: आदेशावसरे गुरोरनुचराः शिष्याः हाराधने कोपे सप्रणय प्रसादसमये ये च प्रसन्नोदयाः ॥ १३१ ॥ निजप्रतापप्रभावसंभाषितभूर्भुव: स्वस्त्रयी महोभाव देव, अस्मा वै पुत्र इतेागृहीया पुराणपुरुषावगाह्यविद्यम् । इदानीं समन्तरेण को नाम मिः श्रेयस्तधाम परस्तपः प्रारम्भावसरः । स्वकीयवंशाभिवृद्धिक्षेत्रात पुत्राद मौऽपि नापराः समस्ति । यतः शास्त्रतः पुर्मासं प्रसाधितास्मीयान्ययोदयमीमांसं दुरीहितागमासम्मान्तरसंगमास्त्रायते यतं पुत्रं निर्वयन्ति । ए: 1 राज्यस्य तपसो वापि देवे भवति श्रमम् । अहं छायेद देवस्य सहघुतिपरायण: ॥ १६६ ॥ १६१ हस्येकतातिसंतानस्य प्रतिजिज्ञासमानस्य में प्रत्यादिश्य त्रिदशैरप्यनुल्लधर्मीय व्यापारेण व क्षेपेण व्याहारव्ययदारमादाय स्वकीयान्मुक्तिलक्ष्मीसमालिङ्गनाम्यासात् कण्ठदेशादखिल मही बल्यवश्यसादेशमाठामिव वारसारखमुक्ताफला मेकावली www | पौवराज्याय समादिश्य व पवन्धविवाहमहोत्सवाच खेदमोद मन्यमान सर्ग *सामन्तवर्ग विचितबहुभावन स्नेह करते हैं, एवं गुरु के प्रसाद प्रसन्नता ) के अवसर पर जिनका हृदय प्रसन्न होजाता है, वे पुत्र, प्रिय से पवित्र कीर्ति के स्थान है, उनका जन्म महोत्सव अमूल्य या दुर्लभ है और वे पुत्र की कामना करनेवाले लोगों के कुलमण्डन हैं एवं राज्यलक्ष्मी के निवास स्थान है || १६५ ।। अपने तेज ( सैनिक शक्ति व कोश-शक्ति) के माहात्म्य वश अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक महान आनन्द उत्पन्न करनेवाले ऐसे हे राजाधिराज ! 'आत्मा में पुत्रः' अर्थात्- 'निश्चय से पुत्र पिता की आत्मा है' यह वेदशास्त्र के मर्मज्ञ गृहस्थों का श्रीनारायण द्वारा माननीय ऐति' (चिरकाल से चली आनेवाली वैदिक मान्यता ) है, अतः हे तात! इस समय पुत्र के सिवाय दूसरा कौनसा मोक्ष-स्थान पर्याधारण का अवसर है ? अर्थात्-पुत्र ही मोक्ष देनेवाली तपश्चर्या है। इसलिए अपने वंशरूप बाँस वृक्ष की वृद्धि हेतु भूमिस्थान- सरीखे पुत्र को छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। क्योंकि शाकारों ( व्यास, वाल्मीकि, याहवल्क्य व पाराशर आदि ने कहा है कि जो अपने कुल की उन्नति संबंधी विचार के हाता पिता की पापकर्म के आगमनवाले पुनर्भव-संगम से रक्षा करता है, उसे 'पुत्र' कहते हैं। इसलिए जब पूज्य आप राज्यलक्ष्मी व तपोलक्ष्मी का आश्रय किये हुए होंगे तब मैं उसप्रकार चापके सह- ( साथ) गमन में तत्पर रहूँगा जिसप्रकार आपके शरीर की छाया आपके सह-गमन में तत्पर रहती है ।।१६६|| इसप्रकार स्थिरमनोवृत्ति युक्त व उक्तप्रकार की प्रतिज्ञा करनेवाले मेरा पक्तप्रकार का बचनव्यापार ( कथन ) उन्होंने, वेषों द्वारा भी उल्लङ्घन न करनेयोग्य चेष्टावाली अपनी स्रुकुटी की प्रेरणा से रोका। स्पात् — उन्होंने अपने कंठदेश से, जिसके समीप मुक्तिरूपी लक्ष्मी का आलिङ्गन वर्तमान था, 'एकावली' नामकी माला ( हारविशेष) को, जिसमें उज्वल व सर्वश्रेष्ठ एवं बहुमूल्य मोती-समूह पिरोये हुए थे और जो ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों - समस्त भूमण्डल को वशीकरण करने के निमित्त की माला ही है, निकालकर मेरे कुण्ठ पर दी --पहिना ही । तत्पश्चात् उन्होंने समस्त अधीनस्थ नृपसमूह को, जो कि दुःख व सुख श्री बुद्धिंगत सृष्टि कर रहा था । अर्थात् — मेरे पिता की दीक्षा धारण करने का समाचार श्रवण कर विशेष * 'खेदमोदमन्दायमाने' इति ग० । * 'सर्वसामन्त' इति ग० । १. रूपक ६ समुच्चयालंकार । २. उतं च उपनिषत्काण्डे - 'अथ त्रयो वा लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक' इति । सोऽयं मनुष्यलोकः नाम्पेन कर्मणा पितृलोकः, विद्यमा देवलोकको क्यानां श्रेष्ठतस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति । ३. उपमालंकार । २१
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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