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यरास्तिवकपम्पूमध्ये परंपरिलक्विीपिवेदितनिसर्गपणापास्तपोबमानमरमायाः समाममाणसरवस्ममिमिवात्माने कर्तुमीडामहे ।"
पसोधर:-'समस्तभुवनभूपावस्तुपमानकोतिकुलदैवत सात, युक्तदेतत् । किन्तु क्षिविपतिस्तानामविलमनोरख कामयेरपी राज्यलक्ष्मीः सकलादिक्पालखरसायमानपाक्सेव देव, बातमन्तरेण किमपि समुत्पादयस्पपि पुनः अर्यमापरम्परामिर्मइनकलायुक्तिरिय भुक्तमावतमतिबाकायले मुहमपति।
स्वबन्धपत्तेः शनिहरिपा सुलोत्सवोपायविधी व विति। स्वातिः केमिमनोरधानां भी: स्पादिना सायमन देवः ॥ १२ ॥ विना दिनेतारमयं पृथा स्थायथा गबाना बिनमोपदेशः। राज्य तथा राजमारकरां बिना विजेतारमिवं क्ष ॥ १५ ॥ दुधसिमभा: HNN समास
तेषां दिवापि धीयोनि चिन्तामा विजम्माताम् ॥ १४ ॥ वि। पुत्रास्ते ननु पुण्यकीर्तनपद नार्वजन्मोत्सवास्ते पुवाधिनस्व वंशतिलकास्ते में मिया केतमम् । केरण (सम्यग्दर्शन-आदि उपाय ) संबन्धी मनोरथों से शक्तिशाली हैं, अपनी आत्मा को ऐसी पोबन मम्मी के समागम संबन्धी अवसर का मार्ग करना चाहते हैं, जिसका स्वाभाविक प्रेम वृद्धावस्थारूपी डूती से हम्पमा गया है।
____ रुक पात ने सुनकर यशोधर ने कहा-समस्त पृथिवीमण्डल के राजाओं द्वारा सुति की हुई र्तिरूपी कुलदेवता से अलंकृत ऐसे हे पिता जी। यह आपकी मान्यता पित। नहीं है। क्योंकि यद्यपि यह राजलक्ष्मी राजपुत्रों के समस्त मनोरथों की पूर्ति करने के लिए कामधेनुसली है तथापि समस्त राजसमूह द्वारा प्रशंसनीय परणफमल की सेवावाले ऐसे हे देव ! और इस मुख छत्सा प्रती हुई भी पश्चात् अनेक राजकीय कार्यों में पाई हुई सलमानों की परम्परा से उनके मुखने
सपनर बाहिर फेंक देती है नष्ट कर गलती है जिसप्रकार राजफल का भक्षण खाये हुए भोजन को बिशेष धार्विक दुःखपूर्वक बमन करा देता है।
क्योंकि पिता के बिना यह लक्ष्मी ( राज्यादि-विभूति) सप्रकार दुःख का कारण (पीड़ाजनक) होती है जिसप्रकार स्वाधीन प्रवृत्ति करनेवाले मानव को शनेश्वर नामक माह की पूर्ण दृष्टि (पवय) कम भरण होती है भीर जिसप्रकार विष्टिनाम का सप्तमकरण मानष का सुख नष्ट करता है इसीप्रधर पिता के बिना यह लक्ष्मी भी सुख-संबंधी उत्सवों के उपाय करने में सुख नाह कर देती है। सीप्रकार पिता के बिना यह लक्ष्मी क्रीड़ा करने के मनोरथ उसप्रकार भङ्ग (नष्ट) करती है जिसमबर केतु नामक नीय प्रह का उदय मानवों के कीड़ा करने के मनोरय भङ्ग कर देता है। जिसमकार महावत के बिना हाथियों के लिए दिया जानेवाला शिक्षा का उपदेश निरर्थक है उसीप्रकार पिता के बिना पासपोरे यह गभ्य भी निरर्थक है"।।१६।। जो राजपुत्र, पिता पर पृथिषी-(राज्य ) भार स्थापित करते हुए सवपूर्वक नहीं रहने, सनके बुद्धिरूपी आकाश में दिन-रात चिन्तारूपी निषित अन्धकार विस्तृत हो ।१६। उक्त पात का विशेष निरूपण-जो पिता की भाशा-पालन के अवसर पर सेवा सरीले. शामाभ्यास के समय शिष्य-सरीखे हैं और गुरु ( पिता व शिरक)के कुपित होजाने पर भी जो उससे
१. शान्तासंकार । २. स्टान्तालंकार । ३. पत्रकार ।