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द्वितीयः प्राधासः माहालकालिपि तव प्रवृत्त्या केसरिकिशोरकस्पेव पराक्रमामातवेरिपरिविक्षारभूमपा, पयोधरलमयस्वैका मसलारमसामश्रितसपनापुरप्रासाइमेदिनीदूारमरोहाः, शरबन्द्रस्येव निखिललगामभवलनारब्धयशःप्रकाशामवाटयः, पुरफोनहेरिए संशर्पितार्षिजनहृदयमनोरथाः, प्रतिपनदीक्षिवस्येव सत्याधिवचन रचनाप्रपत्रितयः, प्रथम्भुमावतारस्येव धर्ममहोत्सवभाषणा, प्रधापयोपरस्येव प्रमोदितसकामुमनभानभुवः। तत्परमेतदेवाशास्महे-भवन्तु श्रीसरस्वतीसमागमानुपाधीनि सिम्सलिलानीय घिरमायूषि, परिपालपतु भवान् प्रभापतिरिव पूर्वावनीरवरपरम्परामातपरिपालनोपदेशमोपमिमियाकाम, विकामयतु चास्माकमरालकालमधनिमारोडरमपितमिम युगभरप्रदेशम् । अयं तु सांप्रत भवतू जगजारोपिवसमस्तसाम्राज्यभारास्चिरायपार्णितचतुर्थपुरुषार्थसमर्थनमनोरथस्गराः क्योंकि जिसप्रकार सिंह-शाषक ( बचा) की चेष्टाएँ शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी अपने पराक्रम से शत्रुभूत हाथियों की संचार-भूमियों को न्याप्त करनेवाली होती है उसीप्रकार आपकी चेष्टाएँ भी युवावस्था की पत सो दूर थे किन्तु शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी अपने पराक्रम द्वारा शत्रुओं के हाथियों की पर्यटनसंचार-भूमियों को व्याप्त करनेवाली है। जिसप्रकार वर्षाकाल की प्रवृत्तियों शरासार' (सर-बासार) अर्थात्- की बेगशाली वृष्टि के विस्तार द्वारा नगरपर्ती गृहों की भूमियों पर दूर्वाक्कुर उत्पन्न करती है इसीप्रकार भाप गेवार भी मिाशुकातीमहीना में जी पाससार अर्थात्-बाणों की वेगशाली वृष्टि द्वारा राओं के नगरवी गृहों में दुचिकुरों की उत्पत्ति स्थापित करती हैं। जिसप्रकार शरत्कालीन चन्द्र की प्रवृत्तियों, समस्त तीन लोकरूपी गृह को उज्वल करने में अमृत-वृष्टि की रचना उत्पम करती है ससीप्रकार बापकी चेष्टाएँ भी शिशुकालीन क्रीड़ाओं में भी समस्त तीन लोकरूपी गृह को उज्वल करने में पराप्र-काशरूपी अमृतवृष्टि की रचना (उत्पति) करनेवाली है एवं जिसप्रकार कल्पना यावकों के मनोरथ पूर्ण करते हैं उसीप्रकार आपकी चेष्टाएँ भी याचकों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली हैं। जिसप्रकार अहिंसा-आदि महाप्रत धारण करनेवाले मुनियों की प्रवृत्तियों में सत्यता के कारण पवित्र पधनों का रचना-विस्वार पाया जाता है उसीप्रकार आपकी चेष्टाओं में भी सत्यता के कारण पवित्र पचनों का रचना-विस्तार पाया आता है। आपकी प्रवृत्तियाँ पूजा व पात्र-दानादि धार्मिक महोत्सों में उसप्रकार वत्पर है जिसप्रकार युग के प्रथम प्रवेश की प्रवृधियाँ धर्म महोत्सयों में तत्पर होती है। जिसप्रकार अमृत-श्रृष्टि करनेवाले मेघों की प्रवृत्तियों द्वारा दीन लोक अथवा मनुष्य लोक की भूमियों हर्ष में प्राप्त कराई जाती हैं इसीप्रकार आपकी प्रवृत्तियों द्वारा भी तीन लोक की पृथिषियों हर्ष में प्राप्त कन्यां आती है। अतः यद्यपि भापको कोई नैतिक शिक्षा देने योग्य नहीं है तथापि हम केषल यही भाव देते हैं कि है पुत्र! तुम्हारे जीवन (घायुष्य ) चिरायु हों और उनमें लक्ष्मी (राज्यविभूति) और सरस्वती (द्वादशाशवाणी) का समागम उसप्रकार होता रहे जिसप्रकार समुद्र की अलराशि में लक्ष्मी और सरस्वती अदियों का समागम होता है। तुम ऋषभदेव तीर्थकर के समान ऐसे इस पृथिवी-मंडल की रक्षा करो, जिसकी रक्षा का अपदेश (शिक्षा) पूर्वकाल के भरतचक्रवर्ती-आदि राजाधों की परम्परा से चला आरहा है। पुत्र! मेरे स्कन्ध (कन्धा) को, जो कि चिरकाल पर्यन्त पृथिवी का बोझ धारण करने के फलस्वरूप कष्ट को प्राप्त होचुका है, विभाम प्राप्त करात्रो। इस समय हम, जिन्होंने समस्त साम्राज्य प्रभार आपके नाइवएशरूपी हाथी पर स्थापित किया है और चिरकाल से प्रार्थना किये हुये मोक्ष पुरुषार्थ
. * 'रचनपवितमयाः' इति का। १. तथा चोपयोईलयोस्रव रलयोः पयोस्तथा । अभेदमेव पाश्चन्ति येऽलंकारक्दिो दुगः ॥१॥
पत्र. संत टीप. १०१ सेमिय-सम्पादक