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भी अपने साथ वन ले चलें।' कुलटा रानी की इस ढिठाई से राजा के मन को गहरी चोट लगी, पर उसने मन्दिर में जाकर आटे के मुझे की बलि चढ़ाई। इससे उसकी माँ प्रसन्न हुई, किन्तु असती रानी को भय हुआ कि कहीं का बैगगा जमिन हा! गतब उसने आटे के मुर्गे में विष मिला दिया। उसके खाने से चन्द्रमति और यशोधर दोनों तुरन्त मर गये।
(अमृतमति महादेवी-दुर्विलसन नामक चतुर्थ श्रावास समाप्त ) । राजमाता चन्द्रमति और राजा यशोधर ने आटे के मुर्गे की बलि का संकल्प करके जो पाप किया इसके फलस्वरूप तीन जन्मों तक उन्हें पशुयोनि में उत्पन्न होना पड़ा। पहली योनि में यशोधर मोर की योनि में पैदा हुआ और चन्द्रमति कुत्ता बना। दूसरे जन्म में दोनों उञ्जयिनी की शिप्रा नदी में मछली के रूप में उत्पन्न हुए। तीसरे जन्म में वे दो मुर्गे हुए जिन्हें पकड़कर एक जल्लाद उजायना के कामदेव के मन्दिर के उद्यान में होनेवाले वसन्तोत्सब में कुक्कुट युद्ध का तमाशा दिखाने के लिये ले गया। वहाँ उसे आचार्य 'सुदत्त' के दर्शन हुए। ये पहले कलिङ्ग देश के राजा श्रे, पर अपना विशाल गाय छोड़कर मुनित में दाक्षित हुए। उनका उपदेश सुनकर दोनों मुर्गों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होआया। अगले जन्म में वे दोनों यशोमात राजा की रानी कुसुमावलि के उदर से भाई बहिन के रूप में उत्पन्न हए और उनका नाम क्रमशः 'अभयसाच' और 'अभयमति' रखा गया। एक बार राजा यशोमति आचार्य मुदत्त के दर्शन करने गया और अपने पूर्वजों की परलोक-गांत के बारे में प्रश्न किया ।
__ आचार्य ने कहा-तुम्हारे पितामह यशोर्घ स्वर्ग में इन्द्रपद भोग रहे हैं। तुम्हारी माता अमृतमति नरक में है और यशोधर और चन्द्रमति ने इसप्रकार तीन घार संसार का भ्रमण किया है । इसके बाद उन्होंने यशोधर और चन्द्रमति के संसार-भ्रमण की कहानी भी सुनाई। उस वृत्तान को सुनकर संसार के स्वरूप का ज्ञान हो गया और यह उर हुआ कि कहीं हम बड़े होकर फिर इस भवचक में न फंस जाय । अतएव बाल्यावस्था में ही दोनों ने प्राचार्य सुदत्त के संघ में दीक्षा ले ली।
इतना कहकर 'अभयरुचि' ने राजा मारिदत्त से कहा- हे राजन् ! हम वे ही भाई-बहिन है। हमारे प्राचार्य सुदत्त भी नगर से बाहर ठहरे हैं। उनके आदेश से हम भिक्षा के लिये निकले थे कि तुम्हारे चाण्डाल हमें यहाँ पकड़ लाए। (भयभ्रमणवर्णन नामक पाँचवें आश्वास की कथा यहाँ तक समाप्त हुई।)
वस्तुतः यशस्तिलकचम्पू का कथाभाग यही समाप्त हो जाता है। आश्वास छह. सात, आठ इन तीनों का नाम 'उपासकाध्ययन' है जिनमें उपासक या ग्रहस्थों के लिये छोटे बड़े छियालिस कल्प या अध्यायों में गृहस्थोपयोगी धर्मों का उपदेश आचार्य सुदत्त के मुख से कराया गया है। इनमें जैनधर्म का बहुन ही विशद निरूपा हुआ है। अठे आश्वास में भिन्न भिन्न नाम के २१ कल्प हैं। सातवे आश्वास में बाइसवें कल्प से तेतीस कल्प तक मद्यप्रवृत्तिदोष, मद्यनिवृत्तिगुण, स्तेय, हिंसा, लोभ-आदि के दुष्परिणामों को बताने के लिये छोटे छोटे उपाख्यान हैं। ऐसे ही
आठवें आश्वास में चौतीसवें कल्प से छियालीसवें कल्प तक उपाख्यानों का सिलसिला है। अन्त में इस सूचना के साथ अन्य समाप्त होता है कि आचार्य सुदन्त का उपदेश सुनकर राजा मारिदत्त और उसकी प्रजा प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रद्धा से धर्म का पालन किया जिसके फलस्वरूप सारा ग्रीधेय प्रदेश सुनब गर्व शान्ति से भर गया।