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________________ प्रथम आश्वास काव्यकथासु न एत्र हि कयाः साक्षिणः समुद्रसमाः । गुणमणिमन्तनिदधति दोषमलं ये बहिन कुर्वन्ति ॥३६॥ भआत्मस्थितेर्वस्तु विचारणीयं न जानु जात्यन्सरसंश्रयेण । वर्गनिर्वर्णविधौ धानां सुवर्णवर्णस्य सुधानुषन्धः ॥३४॥ गुमेषु ये दोषमनीषयान्धा दोपात् गुणीकर्तुमभेशते का । श्रोतुं कवीनां वचनं न तेऽहां सरस्वतीदोहिपु कोधिकारः ॥३८॥ - अयं कविष कविः किमत्र हेतुप्रयुक्ति कृतिभिविधेया। श्रोनं मनश्शात्र यतः समर्थ वागर्थयारूपनिरूपमाप ||३॥ कवितायै नमस्तस्यै सदसोल्लासिताशयाः। कुर्वन्ति कवयः कोसिलता लोकान्तसंश्रयाम् ॥४॥ निद्रा विदूस्यसि शास्त्ररस रुगत्सि सर्वेन्द्रियार्थमसमर्थविधि विधस्से । घेता विभ्रमपसे कविते पिशाचि लोकस्तथापि सुकृती त्वदनुग्रहेण ॥११॥ (परीक्षक ) नियुक्त करना चाहिये, जो समुद्र के समान गम्भीर होते हुए गुण ( माधुर्यादि ) रूप मणियों में अपने हृदय में स्थापित ( ग्रहण ) करते हुए काव्यसंबंधी दोपों-( दुःश्रवत्वादि) को बाहिर निकाल दत है-उनपर दृष्टि नहीं डालते ॥ ३६॥ परीक्षक को परीक्षणीय वस्तु, (काव्यादि) की मर्यादा या स्वरूप के अनुसार परीक्षा करनी चाहिए। उसे कभी भी परीक्ष्य वस्तु में अन्य वस्तु का आश्रय लेकर परीक्षा नहीं करनी चाहिए। उदाहरणार्थ-तर्कशास्त्र की परीक्षा-विषय में व्याकरण की परीक्षा और व्याकरण शास्त्र के विषय में तर्कशास्त्र की परीक्षा नहीं करनी चाहिए। किन्तु परीक्ष्य वस्तु की मर्यादा करते हुए-तर्क से तर्क की, व्याकरण से व्याकरण की और काव्य से कान्य की परीक्षा करनी चाहिए। उदाहरणार्थ चाँदी की परीक्षा विधि में सुवर्ण के पीतत्यादि गुणों का प्राक्षेप करना - प्रस्तुत चाँदी में सुवर्ण के अमुक असाधारण गुण नहीं हैं, इसलिए यह चाँदी सही नहीं है-विद्वानों के लिए निरर्थक है। निष्कर्ष - प्रस्तुत यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के गुणादि की परीक्षा अन्य काव्यग्रन्थों से करनी चाहिये, जिसके फलस्वरूप यह बेजोड़ प्रमाणित होगा ॥ ३७ ।। जो मानव, काव्य शास्त्र के दोषों ( खंडितत्वादि ) को जानकर उसके गुणों 'माधुर्यादि) में विचार शून्य है-काव्य गुणों की अवहेलना करते हैं अथवा जो दोषों को गुण बनाने में समर्थ हैं, वे काव्य-शास्त्र के सुनने लायक नहीं। क्योंकि सरस्वती (द्वादशाङ्गश्रुतदेवना) से द्रोह करनेवालों को शास्त्र श्रवण करने का क्या अधिकार है ? कोई अधिकार नहीं' [1३८॥ क्योंकि जब काव्यसंबंधी शब्द और अर्थ (काव्यवस्तु) के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए क्रमशः श्रेग्नेन्द्रिय और मन समर्थ है। अर्थात् जब श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा काव्य के शब्दों का और मन द्वारा उसके अर्थ का बोध होसकता है तष 'यह सुकाय है और श्रमुक कवि नहीं है इस प्रकार के वचनों का प्रयोग-जिना द्वारा गण-दोष का निरूपण करनाक्या विद्वानों को प्रस्तुत काब्य ( यशस्निलक) में करना चाहिए? नहीं करना चाहिए। (क्योंकि निराधार पंचनमात्र से काव्य की परीक्षा नहीं होती ) ॥ ३६ ।। उस सुकवि के काव्य के लिए, जिसके रस से शिवा हर्ष को प्राप्त कराया गया है चित्त जिनका ऐसे विद्वान् कथि, अपनी कीर्तिरूप लता को तीनलोक के अन्त तक व्याप्त होनेवाली-अत्यधिक विस्तीर्ण करते हैं, हमारा नमस्कार हो ॥४०॥ हे कविते! व्यन्तरि। तू कधि की निदा भङ्ग करती है, उसके न्याय-व्याकरणादि शास्त्रों के रस को ढकती है उसमें प्रतिबन्ध ( बाधा ) डालती है, एवं उसके समस्त इन्द्रियों ( स्पर्शनादि) के विषयों ( स्पर्शादि) की शक्ति को सीण करती है तेरे में संलग्न हुए कवि की समस्त इन्द्रियों के विषयों को उपभोग करने की . १-उपमालंकार। २-दृष्टान्तालंकार । ३-आक्षेपालंबार । ४-यथासंख्यालंकार । ५–अतिशय । रूपालंकार का संकर।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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