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यशस्तिलकचम्पूकाम्ये हतपरेवसंगतरमितसुभट्पसूतसुरतसुखसुधासारवयापर्जन्य, दुधजन्य, निवासर्जनशयकाळे, मिजावनीधरधरणिरक्षणक्षमप्रतापासराल, निजविजिगीषुविजपवरप्रदानोदितोदित, निजपराक्रमगर्वस्वविवारपरदर्पपर्वत, निजनाथवरूथिमीरक्षणपरिछस्प्राकार, कुअरकुलसार, हेलविल्यसामग, मात्रामा विश्व तिष्ठ इति पाठपरायणः स्वयमेव गृहीतषेणुवारजाग्विनिम्ये।
विमीता गणा येषां तेषां ते मुप केवलम् । क्वेषायार्थविनाशाय रणे चात्मवधाय च ॥ २८६ ॥
पस्य जीवधन यावरस तावस्स्वयमीक्षताम् । अन्यथानादिवेगुण्यात्तनुःखे पापभाग्भवेत् ॥ २८७ ।। गए थे, उत्पन्न हुए रविविलास की सुखरूप अमृत-वृष्टि की बेगपूर्ण वर्षा करने में हे गज ! तुम वर्षाऋतु के मेघ हो। हे गजेन्द्र ! तुम्हारे साथ किया हुआ युद्ध (गजयुद्ध) महान् कष्टपूर्वक जीता जाता है। अभिप्राय यह है कि हस्तियुद्ध पर विजयश्री प्रान करने में शूरवीरों को महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं। हे गज ! तुम अपनी राजधानी के शत्रुओं को नष्ट करने के लिए प्रलयकाल हो और ऐसे प्रताप से, जो कि अपने राजा की पृथिवी की रक्षा करने में समर्थ है, पूर्ण व्याप्त हो एवं विजयश्री के इच्छुक अपने स्वामी के हेतु विजयश्रीरूप अभिलषित वस्तु को देने में विशेष उन्नतिशील हो। इसीप्रकार हे गज ! तुमने अपनी विशिष्ट शक्ति के अहकार द्वारा दुर्जय शत्रुओं के हाथियों का मदरूप पर्वत चूर-चूर कर दिया है एवं अपने स्वामी की सैन्य-रक्षा करने में जगम (चलनशील ) कोट हो और हाथियों के वंश में श्रेष्ठ हो। ऐसे हे मित्र गजराज ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल पर्यन्त सिंहरूप से जीवित रहो।
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! मैंने निमप्रकार दो लोकों का अभिप्राय चितवन किया--- हे राजन् ! जिन राजाओं के हाथी शिक्षित नहीं होते, उनके अशिक्षित हाथी केवल उनको फष्टदायक ही नहीं होते अपि तु उनका धन नष्ट करनेवाले भी होते हैं। अर्थान-राजाओं द्वारा गजरक्षा-हेतु दिया हुमा धन व्यर्थ जाता है और वे युद्ध में राजा का बध करनेवाले होते हैं। भावार्थ-शाषकारों ने कहा है कि 'अशिक्षित हाथी उसप्रकार तुछ होता है जिसप्रकार 'धर्म-निर्मित हाथी और काष्ठ-निर्मित हिरण तुच्छ होता है' । निष्कर्ष-विजयश्री के इच्छुक राजाओं को शिक्षित हाथी रखने चाहिए ॥२८॥
जिस पुरुष या राजा के पास जितनी संख्या में गाय-भैस-पादि जीविकोपयोगी सम्पत्ति है, उसकी उसे स्वयं सँभाल (देखरेख-रक्षा करनी चाहिए। अन्यथा (यदि बड उसकी रक्षा सन्हें अन्न व घास-आदि की हीनता होजाने से बे दुखी होते हैं, जिसके फलस्वरूप वह पाप का भागी होता है। भाषार्थ-नीतिकारों ने भी कहा है कि 'गाय-भैंस-आदि जीविकोपयोगी धन की देख-रेख न करनेवाले पुरुष को महान् आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है एवं उनके मर जाने से उसे विशेष मानसिक पीड़ा होती है तथा उन्हें भूखे-प्यासे रखने से पापबंध होता है। मथवा राजनीति के प्रकरण में भी गाय-भैंस-आदि जीवन-निर्वाह में उपयोगी सम्पत्ति को रक्षा न करनेवाले राजा को विशेष आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है एवं उनके असमय में काल-कवलित होने से उसे मानसिक कष्ट होता है; क्योंकि गोधन के प्रभाव होजाने से राष्ट्र की कृषि व व्यापार-आदि जीविका नष्टप्राय होजाती है, जिसके फलस्वरूप १. उक्कं च-- यच्चर्ममयो हस्ती यत्काष्ठमयो मृगः। तद्वदन्ति मातामविनीतं तथोत्तमाः ॥१॥
यश- संस्कृत दी. पु. ४९१ से संकलित-सम्पादक २. समुच्चमालंकार । ३. तथा च सोमदेवरि:-स्वयं औषधनमपश्यतो महती हानिर्मनस्तापच क्षुरिपपासाऽप्रतिकारात पापं च ॥१॥