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________________ वृतीय आश्वासः ३२६ मात्राणां समां कह प्रतिहर स्त्रं हस्तमुचैःशिराः स्वास्ये अतिबालहर्पणपरः पश्चानिरीक्षार्धतः । वंशं निम्नय निर्भुजोरसि ततः प्रोस्कुरलनेत्रद्वयः सिंहस्थापनया युतो भव करिवस्पिरसुसिहोपमः ॥ २८५ ॥ एवमुपस्थापनाशमुपात्तवपुश्चण्डिमाउम्परतया ठाद्गृहीतकरिकलाकारणवेरिकाठीरवाकार, उस्पतिमहा. महीधरप्रतिमतया संपादितोपकण्ठसस्वसाध्यसावसार, समस्तसपत्नप्रसनकामतयेव विस्फारितमहाभयानकल्यवसापकाय, सकलभूताभिभाविना बराचस्तैजापांशजातजनितेन वलवालवश्वानस्करालमूर्तिना मदपुरुषेणाधिष्ठितवया द्विगुणीभूत- . भीमसाहसनिकाय, अनेकशः कानमेदिनीपु नवरदविदारितारातिकरितुरगरवतरीचरनरनिकरकीलाललिकृतमहायोगिनी. बलिविधान, अयाजाश्चर्थशौर्यप्रीसया वीरनिया स्वयमेव घिहितादितलोहितपन्याकुलप्रपज्ञाधान, निरन्तरमविचारितमाचरिखमृगायितैः शत्रुभिधिरं खिलीभूतामरपुरमार्गता ज्वलनासारचुम्नच्युतचितप्रसत्तीनामप्सरसा देवादावभीवायरस हे गजेन्द्र ! उमतमस्तक-शाली तुम कान और पूंछ को कम्पित करने में तत्पर होते हुए पहिले मुख में अपनी सूंड़ घुसेड़कर अपने शारीरिक अङ्गों की समता ( ऊँचे-नीचे की विषमता से हित ) करो, संकुचित करो और पीछे के भाग से श्राधे बैठो एवं पीठ का मध्यभाग नीचा करो। पश्चात् अपने दोनों नेत्र प्रफुल्लित करते हुए हदय को आगे करो। हे गजराज ! तुम सिंहस्थापना से युक्त होजाओ-सिंहरूप से स्थित होओ और [आक्रमण करने के अवसर पर ] अपने पंजों को बांधनेवाले सिंह-जैसे होजाओ' ||२८॥ हे गजेन्द्र ! इसप्रकार सिंहाकार से प्रतिष्ठापना--स्थापना-के अवसर पर तुम्हारे द्वारा विस्तृत शारीरिक प्रचण्डता ग्रहण कीगई है, इसलिए तुमने ऐसे सिंह की आकृति बलात्कारपूर्वक ग्रहण की है, जो हाथियों के झुण्डों का निष्कारण शत्रु है। हे गजराज ! तुम उत्पतनशील विशाल पर्वत-सरीखे हो, अत: तुम्हारे द्वारा समोपवर्ती प्राणियों को भयङ्कर आकार प्राप्त किया गया है। हे गजश्रेष्ठ ! ऐसा मालूम पड़ता. है कि समस्त शत्रुभूत हाथियों के भक्षण करने की कामना से ही मानों-तुम्हारे द्वारा अपना अत्यन्त भयानक व उद्यमशाली शरीर विशाल किया गया है। हे गजोत्तम ! तुम ऐसे मदपुरुष ( राक्षस ) से अधिष्ठित हो, अर्थात्-ऐसा प्रतीत होता है-मानों-तुम्हारे वृहत् शरीर में ऐसा राक्षस प्रविष्ट हुआ है, जो समस्त प्राणी-समूह या व्यन्तरदेवों को पराजित करनेवाला है और जो जगत् के तेजोमय भाग-समूह से उत्पन्न हुआ है एवं जिसका शरीर उसप्रकार रौद्र (भयानक) है जिसप्रकार प्रदीप्त होती हुई ज्वालाओं पाली बाग्नि रौद्र ( भयानक) होती है, इसकारण से ही तुम्हारा भयानक साहस-समूह (अद्भुत कमसमूह-करता-आदि) द्विगुणित (दुगुना) होगया है। गज! तुम्हारे द्वारा अनेकवार संग्रामममियों पर नलों व दन्तों ( खीसों) द्वारा चूर्ण किये हुए शत्रुओं के हाथी, घोड़े, रथ और नीका पर स्थित हुए योद्धा पुरुषों के समूहों की रुधिर-क्रीड़ा से महायोगिनियों (विद्यादेवताओं) की पूजाविधि कीगई है। गज! तुम्हारा पाँच अङ्गलप्रमाण स्थासक ( शरीर को सुगन्धित करनेवाला पदार्थ ) तुम्हारी निकपट अदभुत शूरखा से प्रसन्न हुई बीरलक्ष्मी द्वारा स्वयं ही शत्रु-रुधिर से विस्तृत किया गया है। निरन्तर बिना बिचारे भागे हुए शत्रों द्वारा स्वर्ग का मार्ग चिरकाल तक अजड़ ( देवों से शून्य) होगया था। अर्थात-युद्ध छोड़कर भागे हुए शत्रुओं ने स्वर्ग में प्राप्त होकर देवताओं को भगा दिया था, जिसके फलस्वरूप स्वर्ग का मार्ग (स्थान) ऊजड़ होचुका था, जिसके कारण देषियों के चित्त की प्रसन्नता विशेषरूप से प्रदीप्त होनेवाली कामदेवरूपी अग्नि के अङ्गार-चुम्बन ( स्पर्श) से नष्ट होचुकी थी, पश्चात उनके भाग्योदय से ऐसे योद्धाओं से, जो संग्रामभूमियों पर निडर होकर आए हुए, वाद में विध्वंस किये जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए तत्पश्चात् देवियों के साथ मिलने के कारण उनके द्वारा मैथुन क्रीड़ा में भोगे १. उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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