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तृतीय श्रावासः
इत्यनुस्मृत्य कदाचिस्कृत करेगकारोहणः उसे महान् पापबंध होता है। शुक्र विद्वान ने भी कहा है कि 'जो मानव गाय-भैंस-आद पशुओं की सँभाल-देखरेख नहीं करता उसका गोधन नष्ट होजाता है.-अकाल में मृत्यु के मुग्व में प्रविष्ट होजाता है, जिससे उसे महान पापबंध होता है। नीतिकार सोमदेवसूरि ने लिम्बा है कि मनुष्य को अनाथ ( माता-पिता से रहित ), रोगी और कमजोर पशुओं की अपने वन्धुओं की तरह रक्षा करनी चाहिए। व्यास' विद्वान् ने भी कहा है कि 'जो दयालु मनुष्य अनाथ ( माता-पिता से रहित ), लूलेलँगड़े, दीन व भूस्ख से पीडित पशुओं की रक्षा करता है, वह चिरकाल तक स्वर्ग-सुग्व भोगता है। पशुओं के अकाल-मरण का कारण निरूपण करते हुए प्रस्तुत सोमदेवसूरि ने कहा है कि 'अधिक बोझा स्नादने से और अधिक मार्ग चलाने से पशुओं की अकाल मृत्यु होजाती है। हारीन विद्वान ने भी लिखा है कि 'पशुओं के ऊपर अधिक बोमा लादना और ज्यादा दूर चलाना उनकी मौत का कारण है, इसलिए उनके ऊपर योग्य बोमा लादना चाहिए और उन्हें थोड़ा मार्ग चलाना चाहिए। निष्का-विवेकी मानव को गाय-भैस-श्रादि जीविकोपयोगी सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए ||२८|
तत्पश्चात्-किसी अवसर पर हथिनी पर आरूढ़ हुआ मैं ऐसे हाथियों के मुण्ड को, जिसकी कीति. गुण या प्रशंसा पागल महाज्ञ द्वारा की जाती थी और जो भद्र, मन्द, मृग व मिश्रजाति के हाधियों से प्रचुर था, देखता हुश्रा ज्यों ही हथिनी पर बैठ रहा था त्यों ही सेनापति ने मुझ से निम्नप्रकार हाथियों की मदावस्था (गण्डस्थल आदि स्थानों से प्रवाहित होनेवाले मद-दानजल-की दशा) विज्ञापित कीहे राजन् ! 'वसुमतीतिलक' नाम का गजेन्द्र संजातातलका' नाम की मदावस्था में, 'पट्टवर्धन' नामका श्रेष्ठ हाथी 'आर्द्रकपोलिका' नामकी मदावस्था में, 'उद्धताङ्कश' नाम का हाथी 'अधोनिन्धिनी' नामकी मदायस्था में, 'परचक्रप्रमर्दन' नामका गजराज गन्धचारणी' नाम की मदावस्था में और अहितकुलकालानल' 'क्रोधिनी' नामकी मदावस्था में एवं 'चरीवतंस' नामका हाथी 'अतिवर्तिनी' नामकी मदावस्था में तथा 'विजयशेखर' नामका हाथी 'संभिम्नमधमर्यादा' नामकी मदावस्था में स्थित हुआ शोभायमान होरहा है । सदनन्तर मैं [ फुछ मागे चलकर पूर्वोक्त मदोन्मस श्रेष्ठ दाथियों की क्रीडा देखने के हेतु] निम्मकार प्रवाहित होनेवाले मद की नियुक्ति सम्बन्धी प्रौषधि का उपदेश देने में निपुण चित्तशाली 'शङ्खाश' व 'गुणाकुश' नाम के प्रधान आचार्यों की परिषत् के साथ गर्जाशक्षा भूमियों पर स्थित हुए 'करिविनोदविलोकनदोहद' नाम के महल पर आरूढ़ हुआ। उग्रता-तेजी से बढ़ना, संचय, विस्तार करना, सुखवृद्धि
१. तपा च शुकः--चतुष्पदादिक सर्वस स्वयं यो न पश्यति । तस्य तमाशमभ्येति ततः पापमवाप्नुयात् ॥३॥ ३. तथा च सोमदेवसरिः-पर-बाल-व्याधित क्षीणाम् पशून बान्धवानिय पोषयेत् ॥ १ ॥
३. तपा च व्यास:-अनाथान् विकलान् दीनान् क्षुसरीतान् पशूनपि । दयावान् पोषयेद्यस्तु स स्वर्ग मोदते चिरम् ॥ १ ॥
४. राधा च सोमदेवसूरिः-- अतिभारो महान् मार्गश्च पशूनामकाले मरणकारणा ॥॥ ५. तथा च हारीतः-अतिभारो महान मार्गः पशूनां मृत्युकारणं। तस्मादहभावेन मार्गेणापि प्रयोजयेत् ॥१॥ ६. जाति अलंकार। नोतिषाक्यामृत ( भाषाटोकासमेत ) पृ. १४१-१४२ से संकलित-सम्पादक * उक्तं च -- संजाततिलका पूर्वा द्वितीयाईकपोलिका । तृतीयाधोनिवधा तु चतुर्थी गन्धचारिणी ॥ १ ॥ पममी कोधिनी शेया षष्ठी व प्रवर्तिका । स्यात्संमिश्नकपोला ब सप्तमी सर्वकालिका ॥ २ ॥ पाहुः सात मदावस्था मदविज्ञानकोविदाः । यश. सं. टी. पू. १५ से संऋलित-सम्पादक