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________________ ३७६ यशस्तिलकचम्पूकाकये चेरस' हर्म्यनिर्माणप्रकाश्यमानदिविजयवाहिनी प्रचारः चारचक्षुः सहस्रसाक्षात्कृत सकलभूपालमण्डल मण्डलामधाराज छनिमप्ननिखिलार । ति संतानः संतान कनमेस्मन्दार पारिशात वनदेवतागीतोदाहरणगुणप्रपञ्चः पञ्चमो लोकपाल: पद्मावतीपुर परमेश्वरः कनक गिरिनाथः शिप्रासरिफ के टिकुअर: समुदमुद्राङ्कितशासन: कैलासलाण्डनः भवन्तिसीमन्तिनी कुचकुम्भमानाङ्कुशः प्रत्यक्ष मकरध्वजः याचकचिन्तामणिः कनककङ्कणवर्षः सत्यपरमेष्ठी परलोककलत्रपुत्रकः कविकामधेनुः धर्मरक्षावतंसः नीतिष्ठा म्बन तरु द्विष्टकैटभाराति: आहवचतुर्भुजः परहितमहामतः अहितकुलकालानलः प्रतिपजीवितः पराकमालंकारः समरसहस्राबाहुः प्रतापपनोदयः चातुरीचतुर्मुखः विवेकर लाकरः सरस्वती केलिविलासहंसः सरसोतिषलभः कन्दुकविनोदविद्याधरो मदकरिकोडाखण्डलः स्यन्दनप्रचार गरुडामजः पदातिषैनतेयो गीतगन्धर्वचक्रवर्ती देशाधिपतियों के मस्तकों पर आभूषणरूप होरहे हैं। लक्ष्मी के करकमल द्वारा जिसके चरणपल्लव सेवन किये जारहे हैं। पल्लव (देशविशेष), पाण्ड्य (राजाओं के बसाये हुए मगध आदि देश), घोल, चेरम या चेरल, इन देशों में राज-महल का निर्माण करने के फलस्वरूप जिसकी दिग्विजय संबंधी सेना का प्रचार प्रकट किया जारहा है। जिसने गुप्तचररूप हजारों चक्षुओं द्वारा समस्त राजाओं के मंडल ( समूह ) प्रत्यक्ष किये हैं । जिसके समस्त शत्रुओं के वंश खान के धाराजल में डूबे हुए हैं। जिसका गुण-विस्तार संतानक, नमेरु, मन्दार, और पारिजात, इन स्वर्ग वृक्षों के वनदेवताओं के गीतों में दृष्टान्तरूप से गान किया जाता है। जो मध्यमलोक प्रतिपालक व उज्जयिनी नगरी का परमप्रभु है । जो उज्जयिनी के समीपवर्ती कनकगिरि का स्वामी व शिप्रा नदी की जलकीड़ा करने में कुअर (हाथी) है। जिसका शासन ( आदेश - लेख ) समुद्राकार अँगूठी से अति (चिह्नित ) है। जिसके आज्ञा-लेख पर फैलाश का लाञ्छन (चिह्न) है। जो अवन्ति देश की स्त्रियों के कुछ ( स्तन ) कलशों पर नख स्थापित करता हुआ साक्षात् कामदेव है। जो याचकों के लिए चिन्तामणि है । जो सुवर्णमय कङ्कणों ( कर-भूषणों) की वर्षा करता हुआ सत्यवचनों के प्रतिपालन में ऋषभदेव सरीखा है। जो दूसरों की स्त्रियों का पत्र है। अर्थात्-जो परस्त्रियों के प्रति माता का बर्ताव करता है। जो कवियों के लिए सदा कामधेनु सरीखा मनोरथ पूरक है । धर्मरूप रत्न ही जिसका शिरोरत्न है। जो नीतिरूप लता को आधार देने में महावृक्ष है। जो शत्रुओं को नष्ट करने के हेतु श्रीनारायण है। संप्रामभूमि पर जिसकी चार भुजाएँ हैं अथवा जो संग्रामभूमि पर चतुर्भुज (विष्णु सा पराक्रमी है। प्रजाजनों का कल्याण हो जिसकी प्रतिक्षा है। जो शत्रु वंश को भस्मसात् करने के लिए प्रलयकालीन प्रचण्ड अग्नि है । स्वीकृत प्रतिज्ञापालन ही जिसका जीवन (आयु) है और पराक्रम हो जिसका आभूषण है । जो संग्राम-भूमि पर सहस्रबाहु ( विष्णु- सरीखा ) है अथवा जिसकी हजारों भुजाएँ हैं। जो प्रतापरूपी सूर्य के लिए उदयाचल हैं। अभिप्राय यह है कि जिससे उसप्रकार प्रतापरूपी सूर्य उदित होता है जिसप्रकार उदयाचल पर्वत से सूर्य उदित होता है। जो चतुरता के प्रदर्शित करने में ब्रह्मा है । जो हेय ( छोड़ने योग्य ) और उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) के ज्ञानरूप रत्नों की खानि है । जो सरस्वती के क्रीड़ाविलास में कीड़ास है । अर्थात् जिसप्रकार क्रीड़ास कमळवन में क्रीड़ा करता है उसीप्रकार जो सरस्वती ( द्वादशाङ्गवारणी ) के क्रीड़ा विलास - शाखाभ्यास में कोड़ा करता है। सरस (मधुर) वाणियाँ दी जिसकी प्यारी खियाँ हैं। जो गेंद कीड़ा में विद्याधरप्राय है । जो मदोन्मत्त हाथी के साथ क्रीड़ा करने में इन्द्र- सरीखा है। जो रथ- संचालन क्रीड़ा में सूर्य- सारथि सरीखा है। जो पैदल सेना के साथ चलने में गरुडपत्ती- सरीखा शीघ्रगामी है । जो गानकला में देव- गायकों में चक्रवर्ती ( सर्वश्रेष्ठ ) है ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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