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एतीय भाषासः तपधामागभुपसंहतसरम्भाः प्रत्यावृत्तवाक्पारण्यप्रारम्भास्तिष्ठन्तु । अहो स्वामिप्रतापवर्धमारहिन्सविषिमहिन, भवतोयलमायेगेन । लेखमेनमवधार्य लिरुपता प्रतिलेखः। प्राभूतमिनमवलोक्य मध्यतां प्रतिप्राभूतम् । विधीपक्षों पास्य त्रयस्य यथाईमईगा। यस्माद्यतेष्वपि शास्त्रेषु तमुखा वै राजानः । सेवामन्तावसायिनोऽध्यनवमाभ्मा, fe पुनरन्ये। मपि च । स्वासिद्धिः परवृद्धिर्वो न दूतगलगर्जितः । अवधव्यापकर्माणस्ते जल्पन्ति यथेष्टतः ॥४२॥
संधिविही 'यथाज्ञापयति सेनापति हस्यवार्य च यथादियम् , 'सेनापते, लिखितोऽयं देखः। भयताम्--- स्वस्ति । समस्तमहासामन्यशिखण्डमनीमवारणकाल: FATEसरोजाग्यमामपाल्पाचवः पशवपाचोळ
इसलिए कठोर वचनों का प्रारम्भ उत्पन्न करनेवाले आप लोग क्रोध का त्याग करते हुए अपने अपने स्थान पर बैठो और यशोधरमाहाराज की प्रताप-वृद्धि करने में श्राग्रह करनेवाले हे प्रधान दूत ! तुमको भी युद्ध करने की उत्कण्ठा करने से कोई लाभ नहीं किन्तु अचलनरेश के लेख को मन से भलीभाँति निश्चय करके प्रतिलेख ( उसका उत्तर देनेवाला लेख) लिखिये एवं इस शत्रु-भेंट को देखकर प्रतिमेंट (बदले में दूसरी भेंट ) बोधिए ( तैयार कीजिये ) तथा शत्रु द्वारा भेजे हुए दूत, लेख व भेंट इन तोनों का यथा योग्य सन्मान कीजिए। क्योंकि वीर सैनिकों द्वारा शत्रों के संचालित किये जाने पर भी ( घोर युद्ध का आरम्भ होजाने पर भी ) राजा लोग दूतमुखवाले होते हैं। अर्थात्-दूतों के वचनों द्वारा ही अपनी कार्यसिद्धि ( सन्धि व विग्रहादि द्वारा विजयत्री प्राप्त करना ) करते हैं। अभिप्राय यह है कि युद्ध के पश्चात् भी दूतों का उपयोग होता है, अतः दूत वध करने के अयोग्य होते हैं। यदि दूों के मध्य में चाण्डाल भी दृत बनकर आए हो, तो वे भी अपमान करने के योग्य नहीं होते, फिर उफच वर्णवाले साहाण दूतों का तो कहना ही क्या है? अर्थात्-क्या वे सर्वथा अपमान करने के योग्य हो सकते हैं ? अपितु नहीं हो सकते ।
प्रतापवर्धन सेनापति ने पुनः कहा-कि राजदूतों के कण्ठ द्वारा चिल्लानेमात्र से न तो शत्रुभूत राजाओं के राज्य की क्षति होती है और न विजयश्री के इच्छुक राजा की राज्य वृद्धि होती है। अयश न तो विजयश्री के इच्छुक राजाओं की राज्य-क्षति होती है और न शत्रुभूत राजाधों की राज्य-द्धि होती है। क्योंकि वे लोग ( राजदूत ) शस्त्र-व्यापार-रहित मध्यस्थ क्रियाशाली हुए यथेष्ट वक्ता होते हैं। अर्थात्शस्त्र-आदि से युद्ध न करते हुए राज-सभा में यथेष्ट भाषण करते हैं ॥ ४२४ ॥
अथानन्तर-यशोधर महाराज के "प्रतापवर्धन' नामके सेनापति द्वारा पूर्वोक्त कर्तव्य निश्चित किये जानेपर-यशोधर महाराज के 'सन्धिविग्रही' नामके प्रधान दूत ने कहा--'सेनापति की सी आना है उसीप्रकार में करता हूँ। अर्थात् 'शत्रुभूत अचल नरेश द्वारा भेजे हुए लेख के बदले प्रतिलेख लिखता हूँ । तत्पश्चात्-प्रतापवर्धन सेनापति ने जैसी आज्ञा दी थी इसपर उसने भलीभाँति विचार कर कहा-'हे सेनापति ! अथवा हे यशोधर महाराज ! मेरे द्वारा लिखा हुमा लेख अषण कीजिए-स्वस्ति ( कल्याणमस्तु)।
ऐसे यशोधर महाराज परिपूर्ण प्रसिद्धि-सहित 'अचल' नरेश को आशा देते हैं कि और तो सब कुशलता है एवं आपका कर्तव्य यही है कि अहो अचलनरेश ! 'विजयवर्धन' या 'प्रतापपर्धन सेनापति आपको निम्नप्रकार आमन्त्रण ( आशा ; देता है कैसे हैं यशोघरमहाराज ? जिसके चरणकमल समस्त
'इस्यभिधाय' क.। १, 'चेरला सदी• प्रतौ ।