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________________ ३०४ यशस्तिमपम्पूमम्मे चतुरामलः समीपरभस्मात्मा निर्वयं 'अहो विवर्षापासन, किमेतत्कापियपि तब हामी मामीचीत्। पावालगत्वमप्रतिमातुरङ्गामहः । सधा हि। दोर्दणसंधानतस्तराम्पत्तीन्पुनः पायसखाप्रहारैः । स्यमस्थामविषेर्गजेन्द्रालथानकोऽपि निहन्ति युद्ध ४२२॥ एवमपरेऽपि तस्यादपोत्तरङ्गभङ्गीभर्मिसमारमरित : भारमज्यमानभोगावतमनुष्यो पथास्ववीधारकार शक्तिकार्तिकेय-शङ्कशार्दूल-शतक्रतुविक्रम-शूरशिरोमणि-परषलप्रसयानल-प्रकटकन्दलादित्य-कपटकैटभारातिसपलपुरधूमकेतु-सुभटघटाप्राकार-समरसिंहप्रभावप्रभूत्तपस्तस्य उपकीवर्यपायपर्यस्तमादस्य भूपयज्ञामन्त्रणाय संदिविशुः। सेनापतिस्तत्रावसरे पुनरेवमीहांधो-'भदो भीराः, म जातोचितवृत्तीनां पुंसां किं गलगजितः । शूराणां कातराणा व रणे व्यक्ति पियति ०४२३५ होओ, क्योंकि केवल ऊँचे चिल्लानेमात्र से वीरता से मनोहर वीर पुरुषों की कीर्तियों नहीं होती ॥४२॥ तदनन्तर 'चतुरङ्गमल्ल' नामके वीर पुरुष ने भयङ्कर वेगपूर्वक अपने शरीर की ओर देखकर कहा'ब्रामण-कुल फलहित करनेवाले के दूत! क्या तुम्हारे स्वामी (अपलनरेश ) ने किसी भी अवसर पर यह बात उदाहरणरूप से नहीं सुनी ? कि 'चतुरजमल नामका वीर पुरुष ऐसा है, जिसके साथ लोहालेनेवाला प्रतिमल्ल (बाहयुद्ध में कुशल शत्रुभूत योद्धा ) तीन लोक में उत्पन्न नहीं हुआ। अब 'चतुरजमल' नामका वीर पुरुष अपनी चतुरङ्गमल्लसा का कथन करता है जो 'चतुरङ्गमल' नामका वीरपुरुष भुजारूपी दण्डों के आघात से अकेला होकर के भी घोड़ों को मार डालता है, चरणतलों के प्रहारों द्वारा शत्रु के पैदल सेनिको का घात करता है एवं वक्षःस्थल के शक्ति विधान (प्रयोग) द्वारा शत्रु के श्रेष्ठ हाथियों को नष्ट कर देता है पुनः अकेला ही युद्धभूमि में रथ चूर-चूर कर डालता है ॥४२२॥ इसीप्रकार यशोधरमहाराज के दूसरे भी वीर पुरुषों ने, जिनकी शारीरिक वृत्तियों प्रसिद्ध गर्व के कारण होनेवाली उत्कटरचना के मायाडम्बर संबंधी विशिष्ट भार से भङ्ग (न) होरही थी और जिनमें शक्तिकार्तिकेय, शङ्खशार्दूल, अक्षतविक्रम, शरशिरोमणि, परमलालयानल, 'अकटकन्दलादित्य, कपटकैटभाराति, सपत्नपुरधूमकेतु, सुभटपटाप्राकार व समरसिंहप्रभाव नामपाले वीरपुरुष प्रधामरूपसे वर्तमान थे, अपने अपने चिल्लों के गर्वपूर्वक उस अपना राजा को, जिसने में ऐश्वर्य की प्राप्ति से अपनी मर्यादा लुप्त कर दी थी, संग्रामभूमि पर बुलाने के लिए संदेश दिये। __ अथानन्तर (उक्त वीर पुरुषों के वीरता-पूर्ण वचनों को श्रवण करने के पश्चात् 'यशोधर महाराज के 'प्रतापवर्धन' नामके सेनापति ने उस अवसर पर पुनः इसप्रकार कहने की चेष्टा की-हे धीरवीर पुरुषों ! ऐसे पुरुषों के कण्ठ द्वारा चिल्लाने मात्र से स्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? अपितु कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, जिनमें आत्मयोग्यप्रवृत्ति (वीरतापूर्ण कर्तव्यपालन करने की शक्ति) प्रकट नहीं हुई है, सही बात तो यह है कि शूरवारों की शूरता और कायरों की कायरता युद्धभूमि में प्रकट हो जायगी ॥४२३।। ii भटावलेोक ! 'भाव' का समरसिंहप्रमतयः' क.*जन्यामन्त्रणायक. १. अन्तिरन्यास-अलंकार। २. क्रियाकारकद्रय-दीपकालकार। ३. भाक्षेपालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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