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तृतीय आश्वासः वधि प्रष्टोत्तरं योऽत्र योध्यावधम्भवेष्टनः । सहिति सस्यैषा शस्त्री श्रोटपते शिस ॥११॥
प्रासप्रसर: ससौष्ठवं प्रासं परिवर्तयन्-'पर्याप्तमाखापपरम्परया। सवित्र, पवमुच्यता र दुर्भपायतनम्सूरफारवित्रासितदिकरीमः प्रासो मदीयः समराङ्गणेषु । सकार स्वीच हयं च भिस्या यात्पर्य हुतावादिलोके ॥१९॥
गदाविद्याधरः सगर्व गवामुसम्भवन्--- 'वृतैव विनिवेदमात्मविभवे दिनदिनैर्मप्रभु पश्यागत्य यदि श्रियस्तव मसा नो दियं वास्यति । भ्रान्स्याक्तिविजृम्भितामिलयलोत्सालीकूताशागला मूर्धान हरिति स्फुटालक स्वरकं मदीया गया' ३४३.॥
असमसाहसः सदोंदेकम् 'निजाते, संवदेवमासाशुचमसदापहरुवम्तुलारणे हन्दूरणे दिवारणे निशारणे कूटरणे परत्र का । यवि प्रवीरस्वमिहेधिमे पुरो नगर्विस शौर्षको कीर्तपा' ॥४२१॥ है, क्योंकि अपनी मर्यादा न जाननेवाले शत्रु पर शस्त्र प्रहार को छोड़कर उसके पाप-शोधन का दूसरा कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि---
_ जो शत्रु इस संसार में दुष्टता की आधारभूत क्रियाओं से व्याप्त हुआ युद्ध करने की मुस्थता चाहता है ( कहता है टिप्पणीकार के अभिप्राय से भूमि व द्रव्यादि की वाञ्छा के मिष से उत्तर देता है परन्तु सेवा नहीं करता ), उसका मस्तक यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली मेरी छुरी तड़तड़ायमान शब्दपूर्वक बाट डालती है"।।४।।
___ अथानन्तर 'पासप्रसर नामके वीर पुरुष ने चतुरतापूर्वक भाला उठाते हुए निम्न प्रकार कहा'इस राजसभा में वार वार विशेष भाषण करने से कोई लाभ नहीं लिए हे ब्राह्मण दूत ! तुम उस अचल नरेश से, जो कि पूर्णपाप का स्थान ( अन्याय का मन्दिरप्राय ) है, इसप्रकार कहना
हे दूत ! सूत्कारों (भयानक शब्दों ) द्वारा दिग्गजों को भयभीत करनेवाला मेरा यह भाला संग्राम-भूमियों पर वख्तर-आदि धारण करके युद्ध-हेतु सुसजित हुए तुझ अचल नरेश को और तेरे घोड़े __ को विदीर्ण करके उसप्रकार पाताललोक को प्रस्थान करेगा जिसप्रकार पाताललोकवी प्राणियों को जनाने के लिए दूत वहाँ प्रस्थान करता है" ॥४१९||
अथानन्तर 'गदाविद्याधर नामका वीर पुरुष अहकारपूर्वक गवा ऊपर उठाता हुआ वोला---
'हे दूत ! तू अपने स्वामी 'अचल' राजा से इसप्रकार कहना-यदि तेरे लिए लक्ष्मियों मभीष्ट हैं। अर्थात् यदि तू राज्यलक्ष्मी चाहता है वो दो या तीन दिनों के अन्दर मेरे स्वामी यशोधर महाराज के पास आकर उनके दर्शन कर। अन्यथा -यवि शरण में आकर उनका दर्शन नहीं करेगा तो मेरी यह गदा, जिसने वार बार घूमने से फैली हुई वायु-बल से दिग्गजों को भागने-हेतु उत्कण्ठित किया है, तेय मस्तक मस्तक-खंडों के शेषभागों को फोड़नेवाले व्यापारपूर्वक शीध्र फोड़ डालेगी ॥४२०||
तत्पश्चात्-'असमसाहस' नामके वीर पुरुष ने विशेष मद के साथ कहा-हे निजाति (हे ब्राह्मण ! अथवा श्लेप में दो पुरुषों से जन्म लेनेवाले हे दूत !) तू सस अचल राजा से, जिसके समीप शोक वर्तमान है और जिसका मन दुराग्रही है, इसप्रकार कहना
हे 'भचल' ! यदि तू बाहु-युद्ध, मल्ल युद्ध, दिवस-युद्ध, रात्रियुद्ध और मायायुद्ध एवं और किसीप्रकार के धनुयुद्ध व खड्गयुद्ध-आदि में विशेष वीर है तो इस युद्धभूमि पर मेरे भागे युद्ध करने के लिए उपस्थित
दिौथ्यविभवेष्टनः कः। १. माति अलद्वार। २. उपमालारः १. अतिशयलंकार ।