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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लागलगरलः सोल्लुण्ठालापं लालमुहानयमानः-४ धीराः, कृतं भवता समरसतम्भेण । यस्मा विदमेकमेव चुदइसनुशिरान्साः कीर्णकृत्तिमतामाः क्षादविरलरकस्फारधारासहना । स्फुटनिकठोर यातास्थीः समीके मम रिपुदयालीलागलं लिखीति' ॥४११॥
कणयकोणपः सामर्थ विहस्य-अये दूत, सादरं भूयताम् । पसौ सब प्रभुरस्मरसमसंभावनया देवसेवार्या मानुकुलवृत्तिस्तवा नूनमेवः
हमस्यापदातिव्याल्यासनातर्णितयोगिः ! गपिचितवनकरणि कणयः कार्य करिष्यते तस्य' ॥४१६॥ त्रिशूलभैरवः सासूयं निशूलं पलायन्-'दूत, हि मचनादेषमचलम् - इदं निशूलं तिसूभिः शिखाभिर्मार्गमयं वक्षास ते विधायपातसमयेत्रिशिावतारी कारणे कीसिमिमा मदीयाम्॥४१॥
असिधेनुधनंजयः सेय॑मसिमातृमुहौ पञ्चशाख निधाय - 'अहो प्रहामन्धो, ममाप्येष एव सर्गो यस्मामासात्मस्थितेस्रात्तेने शरूपातादन्यत्र प्रायश्चेसनमस्ति । ततः
अथानन्तर 'लागलगरल' नामके वीर सैनिक ने अहवार युक्त भाषणपूर्वक हल ( शस्त्रविशेष) - घुमाते हुए कहा 'हे स्वामिभक्त वीरपुरुषो! आपको युद्ध प्रारम्भ करने से पर्याप्त है-कोई लाभ नहीं।
क्योंकि मेरा केवल हल ही युद्धभूमि पर ऐसी शत्रु-हृदय-पक्तियों को विशेषरूप से खेद-खिन (क्लेशित ) करता है, जिनकी महान् नसों के प्रान्तभाग टूट रह हैं, जिनके विस्तृत चमड़े फैंक दिये गये है और जिनके खून की स्थूल हजारों छटाएँ श्रावच्छिन्न होती हुई बरस रही हैं एवं जिनकी धनुष-कोटा ( दोनों कोनों ) के समान कठोर वष्टा (कटकटाहट ) शब्द करनेवाला हायों के सेकड़ों टुकड़े होरहे६१ ॥४२॥
___ तत्पश्चात्–'कणयकोणपा नामके वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक हँसकर कहा-'अये दूत ! तू सावधानीपूर्वक मेरे वचन श्रवण कर। यद्यपि यह तुम्हारा स्वामी ( दूरवर्ती 'अचल' नरेश), जिसे हमारे सरीखा संघटना-युक्त होना चाहिए। अर्थात्-जिसप्रकार मैं ( 'कणयकोप' ) यशोधर महाराज का सेवक हूँ उसीप्रकार 'प्रचल' नरेश भी यशोधर महाराज का सेवक है। तथापि यदि यह ( अचल नरेश ) यशोधरमहारा की सेवा करने में अनुकूलवृत्ति ( हितकारक वाच करनेवाला) नहीं है तो उस समय
निश्चय से यह मेरा प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला क्रणय ( भूषण-निबन्धन आयुधविशेष ), जिसने हाथी, पोड़े, रथ व पैदल सैनिकों के परस्पर क्षेपण (फेंकने-गिराने) से उत्पन्न हुई वायु द्वारा पृथिवी घुमाई हैकम्पित की है, उसके शरीर को यमराज क मांस-मास { कौर ) का कराण ( विधान ) करेगा' ।।४१६|| तत्पश्चात्-'त्रिशलभैरवा नामके वीर सैनिक ने त्रिशूल संचालित करते हुए शोधपूर्वक कहा-हे दुकूल नामके दूत! मेरे शब्दों में 'अचल' राजा से यह कहना
प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला मेरा यह त्रिशूल अपनी सीन शिखाओं ( घोटियों या अप्रभागों) से तेरे हृदयपटल के तान मार्ग करके युद्धभूमि में मरी इस कोति को पाताललोक, मनुष्यलोक व स्वर्गलोक में अवतरण करनेवाली करेगा'३ ॥४१॥
अथानन्तर 'असिधेनुधनंजय' नामके धीर पुरुष ने कोधपूर्वक छुरी को मूंठ पर हाथ रखकर कहा'हे ब्राह्मण-निकृष्ट दूत! मेरा भी यही निश्चय है। अर्थात्-प्रचलनरेश को नष्ट करना मेरा भी कर्तव्य
'उदायमानः कः । बीरा' का। + 'ज्या' का । १. उपमालकार। २, जाति-अलकार। ३. यथासंख्य-अलङ्कार ।