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________________ एखीय भाभासः मारावैरोचनः सार्ग भारापारमबलोकमानः'पयिक कथय मायस्पात्मनस्स्व सभापामसमसमरर राक्षसोलापताम् । यदि सब विशिखामरिणामुमण्ड मटनपटु विषय तस्कृतार्नु विशामि' ॥४१२॥ वक्रविक्रमः साक्षेप व परिक्रमयन्-'महो पेट्येवाधिक, शीघ्रमेवं प्रशाधि पखालाधिपतिम्---- 'दुर्ग मार्गय याहि वा जलनिधैरुतीर्य पार पर पातासं विश खेचरानयवरार वाभव शिप्रताः। नो चेद वैरिकरीबडम्भवलनव्यासकर के मुहर्मक कामकालपकमियो मूभिम प्राति भ्रमम् ॥११३॥ कुन्तप्रताप: सको अन्त मुत्तोषपन्-'द्विजापसद्, सविशेष निकाम्यताम् । पोपिराम्पादसेवा र पुर्वशोऽपि मदीय एष वन्त: शकुन्तासर्पणाय । निर्भिय वक्षः पिठरप्रतिहां तस्यासमा जन्य विमति ॥४१४॥ देनेवाली मेरी तलवार, जिसका व्रतधारण शत्रकुल को नष्ट करने में समर्थ है, युद्धभूमियों पर पूर्णरूप से राक्षसों की पूजा करती है उन्हें सन्तुष्ट करती है ||४१०-४११॥ ( युग्मम् ) अथानन्तर 'नाराचवैरोचन नामके वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक शोह-चाणों के भाते की ओर देखते 'हे 'दुकूल' दूत ! तुम सभा के मध्य अपने स्वामी 'अचल' नरेश से यह कहना कि मैं अद्वितीय या विषम संप्राम-भूमि पर यदि तुम्हारे 'अचल राजा का कबन्ध (शिर-रहित शरीर के घड), जिसका मस्तक मेरे बाणों के अग्रभागों द्वारा काटा गया है अथवा गिर गया है और जो राक्षसों के शीयतायुक्त तालों (हस्त-ताडन क्रिया का मान) से व्याप्त है, नृत्य-चतुर न करूँ तो अग्नि में प्रविष्ट होजाऊँ श्या अथानन्तर 'चक्रविक्रम नामका वीर योद्धा ललकारने के साथ चक्र धुमाता हुआ बोला-है वेदषधिक (वेदार्थ न जानने के कारण हे वेद-भार-वाहक जमवाक्षण !) तुम शीघ्र ही पाल-नरेश ('अचल राजा) से इसप्रकार कहो-- हेमचल ! तुम अपनी रक्षा-हेतु दुर्ग ( पर्वत, जल व पनाविरूप विषमस्थान ) देखो, अथषा समुद्र का उत्कृष्ट किनारा सम्मान करके. चले जामो अथषा रसातल में प्रविष्ट होजाओ प्रथया शीघ्र विद्याधर-शोक के अधीन होज़ामो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो मेरा चक्र, जो कि अकाल (कुसित) कालचक सरीक्षा भया है और शत्रु-हाथियों का मस्तकपिण्ड चीरने के कारण जिसमें सपिर लगा हुमा है एवं जो बार-बार प्रेरित किया गया है (छोड़ा गया है), निश्चय से सुन्दारे मस्तक पर गिरेगा ||४१३॥ तस्पश्चात् 'कन्तप्रतापनाम के वीर योद्धा ने भाला कम्पित करते हुए क्रोधपूर्षक निमप्रकार कहा-'हे पतित बामण ! सावधानीपूर्वक सुन । जो कोई राजा दुष्ट स्वभाव-वश यशोधर महाराज की सेषा में मन कुपित करता है, उसके प्रति प्रेरित किया हुआ मेरा यह भाला, जो कि सरल भौर शोभायमान बाँस पृक्ष से अत्तान भी हुआ है. गृख-आदि पक्षियों व यमदेवता के संतुष्ट करने के हेतु पूर्व में उस पुरुष के पत्तःस्थलरूप पर्वन की शोभा को भा करके उसके रुधिर से संग्राम भूमि को पूर्ण ( भरी हुई) करता हे ॥४१४|| ___Bभ: ।। *उत्तालयन्' .. ग. 1०। १. औररसप्रधान जाति-अलंकार । १. माति-अलंकार । मतगहों अधिकः' इत्यमरः । ३. वीररसप्रधान जाति-भसंझार अपना अपमालंकार । ४. रूपकालंकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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