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________________ ३७० यशस्तितकचम्पूकाव्ये परशुपराकम: सायज्ञं पाणिमा परम मिनिगानस्तथैष 'उनिलठितमौलिः पादपीठोपकण्ठे न भवति शठकृत्या मस्पतेर्यः सपत्रः । अपमाहितमतिर्मामकस्तस्य सूर्ण रणविरसि कुठार; कण्डपीठौं दिनत्तिः ॥४०॥ मुगरप्रहारः साबरम्भं करतलेन मुद्रमुस्सायन्-'अहो चूत, निवेदयेदं महधर्म सस्य सकलदुराचारको कोठस्य प्रक्षर मोसमागमोत्कण्ठस्य । कपटभरविभीषाचेष्टितैनों विभीयां तदामिह मुधोजवर्जनस्फूजितेन । पदिसुभटघटायां त्वं पटिष्ठपसिष्ठः सपदि मम रणाने मुनरस्याप्रसः स्थाः ॥११॥ करवालवीर सक्रोधः करण करवावं तरलयन्-'अध्वग, साध्ववधार्यताम् । भखवंगर्वदुरवीर्यपर्यस्तमानसः । मदीयस्वामिसेवासु यः कोऽपि इससाहसः ॥४१॥ विपक्षपक्षक्षक्षवीक्षा कोशेषको मामक एतस्य । रमांसि बनाक्षसः क्षादि प्रतीक क्षुण्णतया रणेषु ॥५११॥ (युगमम् ) इसके अनन्तर 'परशुपराक्रम' नाम के बोर पुरुष ने हाथ से कुछार परिमार्जित करते हुए उक्त कोदण्डमार्तण्ड' नाम के वीरपुरुष के समान उस दूत को हाथ से पकड़ कर उससे अनादरपूर्वक निम्न प्रकार पचन कहे-'जो शत्रु दुष्ट योय के कारण मेरे स्वामी यशोधर महाराज के सिंहासन के समीप में इठ से भूमि पर मस्तक झुकानेवाला नहीं होता, उसकी प्रशस्त गर्दन को मेरा कुठार, जिसका स्वरूप संग्राम में विजयश्री प्राप्त करने से कठिन है, संग्राम मस्तक पर शीघ्र विदीर्ण कर देता है-दो टुकड़े कर डालता है ॥४२८॥ अथानन्तर 'मुद्गरप्रहार' नाम के वीर योद्धा ने क्रोधपूर्वक इस्ततल से मुद्गर को उल्लासित करते हुए उस दूत से इसप्रकार वचन कहे-'हे दूत ! तू उस 'प्रचल' नाम के नरेश से, जो कि समस्त दुराचारों ( पापों ) के कारण लोक में हेठ* (अमुख्य-जघन्य ) है और जिसकी लक्ष्मी-समागम की इच्छा नष्ट होरही है, मेरा यह निम्नप्रकार वचन कहना हे दूत ! झूठी वीर योद्धाओं की घातक क्रियाओं से मैं ( मुद्गरप्रहार ) भयभीत नहीं होसकता, इसलिए इस मुद्गरप्रहार' नामके धीर योद्धा के प्रति किये जानेवाले निरर्थक बल के आदर-स्फुरण ( फड़कने ) से तेरा कोई लाभ नहीं। इसलिए यदि वीर योद्धाओं के समूह में तुम (अचल राजा) विशेषरूप से पटुतर प्रस्थान या महिमावाले हो तो शीघ्र ही युद्धभूमि के अप्रभाग पर मेरे मुद्गर के सामने उपस्थित होओ'३ ।। ४०६ ।। तत्पश्चात् 'करवालवीर नामके वीर योद्धा ने कुपित होकर हाथ से तलवार को कम्पित करते हुए कहा-हे दुकूल ! सावधानीपूर्वक सुन । "हे दूत ! जो कोई भी पुरुष, जिसका चित्त गुरुसर ( महान् ) अहार और दुर्वार ( न रोकी जानेवाली) शक्ति से पतित है, मेरे स्वामो यशोधर महाराज के चरणकमलों की आराधनाओं में अपना उद्यम नष्ट करनेवाला होता है, उसके हृदय से प्रवाहित होते हुए हृदय-रुधिरों से यह प्रत्यक्ष दिखाई 'मुद्गरस्याप्रहः स्याः' क.। 'सनोध क० । १. एवं' मूलप्रती । क्षीणतया' का । २ जाति-अलंकार। । * 'हेल्स्य अमुख्यस्य' टिप्पणी ग०। ३. वीररसप्रधान जाति-अलंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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