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________________ प्रथम आवास ४१ दिगम्तरधरदरोगीर्णजालप्लावितदन्तिपोतेच, पोतसंभावमाकुमकुरीजीविताशाविनामपिशुनसभिण्डसंघहेषु, संघमार पारिवाइवपुण्डमाखण्डलकोवण्डविलोकमाध्यायस्वरासजिषु, समिताबकायकामकर्कशदशेपु, विषमवनिमाशाः पातालानि । खालसाजनयत्सु, या य--मेघोद्रीपसस्कठोस्करकासारश्रसस्सिन्धुरे पूरप्लावितकूल पादपकुलक्षुभ्यस्सरिस्पासि । अम्मश्चाइसमीरणाश्रयशिवाफेटकारताम्यन्मृगे काले सूचिमुखाप्रभेचविमिरप्रायःक्षपासङ्गिनि ॥६५॥ भूयःपयःप्लवनिपातितलिङ्गे पर्जन्यर्जितस्तिजितसिंहपोते। सौदामनीमुलिका लिासर्वगिने AIT रिपती कुम्ही ॥६६॥ स्त्रीणां कुचोष्णपटलैरजवावतारः संक्षिप्तः पुनरयं मयनानलेन । यत्राधरामृतघृताहुति चण्डितार्चिः संकल्पजन्मविटपी परमुत्प्रकाशः ॥ ६ ॥ जिनमें, दिमण्डल में स्थित पर्वत की गुफाओं से निकली हुई जलराशि में हाधियों के बचे डुवोये गये हैं। जिनमें, ऐसी विजलीरूप यष्टियों का निपुर प्रहार पाया जाता है, जो मृग-शिशुओं की रक्षा करने में व्याकुल हुई हिरणियों के प्राण धारण की इच्छा को नष्ट करने की सूचना देनेवाली है। जो ऐसे इन्द्रधनुष के देखने में पान्थों की शीघ्रता उत्पन्न करानेवाले हैं, जो कि परस्पर के निष्ठुर प्रहार से गरजनेवाले मेघों के शरीर को अलंकृत करनेवाला है। जिनमें डोरी चढ़ाए हुए धनुष द्वारा कामदेव की उत्कट अवस्था पाई जाती है। अर्थात्-जो विलासी युवक-युवतियों की कामेच्छा को द्विगुणित-वृद्धिंगत-करते हैं। इसीप्रकार जो आकाश, भूमि, आठों दिशाएँ तथा पाताल को जलमय करते हैं। ऐसे जिस वर्षा ऋतु के समय में यञ्चेवाली हिरणी किस देश का आश्रय करे, क्योंकि ऐसा कोई भी स्थान जल-शून्य नहीं है, जहाँ यह बैठ सके। कैसा है वर्षा ऋतु का समय ? जिसमें मेषों द्वारा उदान्त (फैंके हुए)व पृथिवी पर गिरते हुए एवं पाषाण-जैसे कठोर प्रोलों की तीव्र वृष्टि द्वारा हाथी भयभीत हो रहे हैं। जिसमें नदियों का जल, जलपूर में डूबे हुए तटवर्ती वृक्ष समूहों द्वारा ऊपर उछल रहा है। इसीप्रकार जिसमें जलराशि द्वारा प्रचण्ड ( वृक्षों के उन्मूलन करने में समर्थ ) यायु के तापन यश उत्पन्न हुए शृगाल भृगालिनियों के फेत्कारों-शब्दविशेषों-से हिरण दुःखी हो रहे हैं-निर्जल प्रदेश में जाने की आकांक्षा कर रहे हैं। जिसमें सूची के अप्रभाग द्वारा भेदने योग्य निबिड अन्धकार से व्याप्त हुई रानियों का सङ्गम वर्तमान है। जिसमें प्रचुर जल राशि के ऊपर गिरने के फलस्वरूप पर्वत-शिखर नीचे गिरा दिये गये हैं। जिसमें मेघों की गड़गड़ाइट ध्वनियों द्वाप सिंह-शावक तिरस्कृत किये गये हैं। इसीप्रकार जिसमें विजलियों के तेज द्वारा समस्त दिशाएँ भयानक की गई हैं। ।।६५-६६॥ कुछ विशेषता यह है कि जिसमें ऐसा कामदेव रूप वृक्ष ही केवल अत्यन्त तेजस्वी हुआ वृद्धिंगत होरहा था, जो मनोझ स्त्रियों के कुचकलशों की उष्णता-समूह से जड़ावतार ( जल के आगमन से-शून्य) होवा हुमा उनकी नेत्र रूप अग्नि द्वारा उद्दीपित हुआ था सथा जिसकी ज्यालाएँ कमनीय कामिनियों की भोष्ठामृत रूप घृताहुति से प्रचण्डीकृत थी-सेजस्वी कीगई थीं ॥६॥ + 'पराइयपु इति सटि, प्रतिषु पाठः। ५. आक्षेपालंकार । २. हेतु-अलंकार-गर्भित दीपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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