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________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये येम । पयोधरोचतिजमितजगवलयनीहनिचलेषु, निबरसनाथनृपतिवापसंपादिपु, संपादितखराबरखण्डमेषु, खरिडतविलासिनीमनोरथपरिपन्धिषु, परिपधिपरिषदरसाइंधु - त्रुहिगवाहनस्थितिम्भदि, अभिनाजगर्जनोर्जितपर्जग्याविच्जिालनदुस्साए, दुस्सहविरहशिखिसं धुक्षणविधायिषु, विहिसनिकामकाकासारमा लघशवि शिसनेषु, विशंसनावसरसरसमीरसंस्कारवादेषु, पाडकरकरालिमविलोपिप, विलसहिमधामदीधितिप्रसरे, प्रसरस्पूरपयःपादपनिर्मुलिप, निर्मूलित जटतटरहानोकहस्तलितालकपना हनीप्रपाषु, प्रवाहपतद्वारावारिगिरिशिखरशीलाप्रसाधिः, प्रसाधिताम्धकारश्यामलाखिलदिगन्ते, क्नदेवताओं की रक्षा का कर्त्तव्य 'आचरण किया है. ऐसे सुदत्ताचार्य द्वारा ऐसे वर्षा ऋतु के दिनों में ऐसी रजिणे पतीत की जाती थी। कैसी हैं वे वर्षा ऋतु की रात्रियाँ ? जिन्होंने निविड़ अन्धकार समूह द्वारा समस्त पृथिवीमण्डल के प्राणियों को अपने शरीर के देखने की शक्ति लुप्त कर दी है एवं अभिसारिका -कामुक-त्रियों के मनरूप बचों के पालन करने में जो भैसों के समान समर्थ हैं। अर्थात् - जिसप्रकार-भैसें अपने बच्चों के पालन करने में समर्थ होती हैं उसीप्रकार प्रस्तुत वर्षाऋतु की रात्रियाँ भी अभिसारिका खियों के मन रूप बों के पेपण करने में समर्थ होती है। कैसे है वे वर्षात के दिन जिन्होंने मेघों के विस्तार से समस्त पृथिवी-मण्डल को श्याम कनुक-प्रच्छादन घविशेष-उत्पन्न किया है। जो मेघों के कारण राजाओं के धनुष प्रावरणों ! उकनेवाले वस्त्रों) से सहित करनेवाले हैं। जिन्होंने कमल बन की शोभा नष्ट की है। जो रण्डता' -- पति द्वारा मानभङ्ग को प्राप्त कराई गई–त्रियों के मनोरथों के शत्रु प्राय है। अर्धान्–जो खण्डिता कामनियों के रतिविलास संबंधी मनोरथों का घात करते हैं। जो शत्रु-समूह का उत्साह भङ्ग करनेवाले हैं। क्योंकि वर्षाऋतु के दिनों में शत्रु चढ़ाई-पादि का उद्यम नहीं करता। इसीप्रकार जो हँसों के निवासस्थान-मानसरे वर--का विघटन करनेवाले हैं। जो, मदोन्मत्त हाथियों की गर्जना (चिंघारना ) से भी दुगुनी गर्जनाबाले मेघों के निरन्तर होनेवाले शब्दों से सहन करने के लिए अशक्य हैं। जो असहनीय बियोगरूप अग्नि को उद्दीपित करनेवाले हैं। जिन्होंने अत्यधिक ओलों की घृष्टि द्वारा व्याघ्रादि अथवा अष्टापड़ों का पराक्रम नष्ट कर दिया है। जो प्रलयकाल के अवसर पर बहनेवाली प्रचण्ड वायु के सूत्कार--शन्दविशेष-से भी विशेष शक्तिशाली विशेष भयङ्कर मालूम होते हैं। जो सूर्य के तीव्र ताप को नष्ट करनेवाले हैं एवं जिन्होंने चन्द्र-किरणों का प्रसार ( प्रवृत्ति) नष्ट किया है। जो पहनेवाले नदीप्रवाह की जलराशि द्वारा वृक्षों का उन्मूलनकरते है-जड़ से उखाड़कर नीचे गिरा देते हैं। इसीप्रकार जिनमें, जड़ से उखाड़े हुए. तटवर्ती वृक्षों द्वारा, अपने तटों को नीचे गिरानेवालो नदियों के जल-प्रवाह स्वागत किये गये है-रोके गये हैं। जो अधिकिान रूप से गिरनेवाली जल-धाराओं की जलराशि द्वारा पर्वत-शिखरों के शतखण्ड करनेवाले हैं। जिनमें समस्त विकाण्डल किये हुए अन्धकारवश मलिन हो रहे हैं। *'हिषु' इति सरि. ( क ) प्रती पाठः। ठिक्क पाठ इ. लि. सटि. ( *, ख, ग, घ, च) प्रतियो से संकलित । 'वित्रासनेषु इदि पाठः मु. प्रतौ । १-तभा व विश्वनायः कविः पार्समेति प्रियो यस्या अन्य सम्भोगचिन्द्रितः । सा नपिउतेति कथिता धीरराष्वाकपायता ।। . भार-दूकुरी बी के साथ किये हुए रति रिलास के चिन्दी से चिन्हित हआ जिसका पति जिसके समीप प्रातः साल पहुँचता है, उसे विद्वानों ने ईप्या--रतिविलास संबंधी चिन्हो को देखकर उत्पन्न हई असहिष्णुता या वाह..-से फसवित चित्त माली सण्डिता नायिका कहा है।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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