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________________ अमर साक्षात आसीनप्रकलायितैः करिपतिः क्षोणीधरम्भनुमस्कयाम्वितकम्पर: किमपि व पापण्मुहुतिहति । मिवामुद्रितलोचनो हरिरपि प्रीष्मेषु माध्यंदिनीविद्रोणिदादापितवपुर्वेलामसिकामति ॥ ६ ॥ किं च । गण्डस्थलीषु सलिलं न जलाशयानामम्मास्युतिः कुचन गेषु म बाहिनीनाम् ।। नाभीदरेषु वनितास जसं न वाडै नीवोलतोलसति शुष्यति यन्त्र लोकः ॥ ६ ॥ सुदुर्लभरसोऽप्येष सरसाधरपल्लानः । तत्करोति व सहेष्टि चित्रं धर्मसमागमः ॥ ६४ ॥ इति मागधयुधप्रतिबोधितमध्याहसंभ्यः सुकतावनध्यघिण्टासिभिविलासिनीनां चिकुरलोचमावलोकनामृतदरिकमनोहराः कुश्चकप्रभाशपश्यामलितपर्यन्तवृत्तयः समस्यास्यन्ते भूरुवनभूमयः, तेषु तपसपनकेतुषु विर्सनकरमूलविहान विखशिखरिशिरःभितस्य प्रलम्बितभुशलतायुगलस्य खरमयूखलेदिखेदितमुखमण्डलस्य मनोगोचरातिचारिसपरमारचर्षितसरलोकल्प परिपूर्खसमाधिचन्द्रोदयविम्भितेन परमानन्दस्यम्दसधापयोधिना पुनरनम्सरमन्सरपर्याप्ताकाशेनेव धनधर्मशान बहिराहता परिदलाविसापघनस्य बन्नधारागृहमुपागतस्येव यान्ति भ्याकसमयाः ॥ जिस प्रीम ऋतु में पर्वत के मध्य में वर्तगान वृक्ष के स्कन्ध-तना पर अपनी ग्रीवा-गर्दनस्थापित करनेवाला हाथी बैठा हुआ घूर रहा है, इससे ऐसा प्रतीत होता है-मानों-कुछ अनिर्वचनीयकहने को अशक्य-वस्तु का बार-बार ध्यान-चिंतन-करता हुआ स्थित है। इसीप्रकार सिंह व व्याघ्रादि, जिसने अपना शरीर पर्वत के सन्धि प्रदेश पर तत्परता के साथ कुछ स्थापित किया है और जो निद्रा से नेत्र बन्द किये हुए है, प्रीष्म ऋतु संबंधी मध्याहू-बेला व्यतीत करता है | जिस ग्रीष्म ऋतु में हाथियों की कपोल-स्थलियों में जल था । अर्थात्--उनके गण्डस्थलों से मद जल प्रवाहित हो रहा था, परन्तु जलाशयों में पानी नहीं था । इसीप्रकार जल का तरण स्त्रियों के स्तन रूप पर्वतों में था। अर्थात्-उनके कुचकलशों से दुग्ध क्षरण होता था, परन्तु नदेयों में पानी नहीं था। एवं कमनीय कामिनियों के नाभि-छिद्रों में जल थाअर्थात्-जनके नाभि रूप छिद्रों से स्वेद जल प्रवाहित होता था, परन्तु समुद्र में जल नहीं था। एवं जहाँ पर त्रियों की वस्त्रप्रन्थि उल्ल सत । वृद्धिंगत ) होती थी, परन्तुं लोक-पृथ्वी तल-शुष्क हो रहा था ॥६३|| यह उष्णकाल का समागम जो सुदुर्लभ रसवाला होकर के भी अर्थान्-रस ( जल ) शोषण करने के फलस्वरूप जिसमें रस ( जल ) दुःख से भी प्राप्त होने के लिए अशक्य है ऐसा होकर के भी जो सरसाधर पल्लव है। अर्थात्-जिसमें ओष्ठ पल्लव सरस ( स्वेदविन्दु-साहित हैं। अतः यह आश्चर्य है कि यह (उष्णकाल का समागम) उसी कार्य (रस-शोषण) को करता है और उसी कार्य ( रस-शोषण )से देष करता है, क्योंकि इसने अोष्ट पल्लव सरस ( स्वेदजल सहित ) किये है ॥६४॥ जिन प्रीष्म ऋतु के दिनों में ऐसे कामी पुरुषों द्वारा, जिन्हें उक्त प्रकार नटाचार्य विद्वानों द्वारा मध्याहू सन्ध्या समझाई गई है और जो पूर्वभव के पुण्य से सफल हैं, ऐसी वृत्तशाली वनभूमियाँ भलीप्रकार आश्रय की जाती हैं। कैसी हैं वृक्षशाली बनभूमेयाँ ? जो उसप्रकार चित्त में उल्लास-यानन्दउत्पन्न करती है जिसप्रकार रमणीय रमणियों के कुटिल-तिरछे नेत्रों की सुन्दर चितवन रूप अमृत का प्रवाह या कृत्रिम नदी चित्त में उल्लास-हर्ष-उत्पन्न करती है और जिनके चारों तरफ के प्रदेश कमनीय प्रमिनियों के कुचकलशों के अग्रभागों की कान्ति (तेज) रूपी कोमल तणों द्वारा श्यामलित किये गये हैं। ___ वर्षाऋतुकालीन तपश्चर्या-निरन्तर धर्मध्यान की चिन्ता में अपनी चिसति दुबोनेवाले और उन मेघाच्छन दिनों में भी वृक्ष की मूल पर निवास करने के कारण ऐसे प्रतीत होनेवाले-मानों-जिन्होंने १. सदरचयालंकार। २, अतिशयालंकार । ३. अतिशयालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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