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सूतीच साधावा परं कोश: शेषायां तन्तु करेपर्व । चतुषु च स दुमैत्रिणि भवति भूप ॥ १३१ ॥ जीविनेत्रस्प — राज्यवृद्धिस्ततोऽमात्याक्षिस्वयम्। अन्ति स्थानेव पेज भो पास्याद्भुजंगपो बहिरीक्षितमोहितः । स्वाति न कि नाम
॥ १३६५ १३७ ॥
का हब सेवा ॥ परस्याधनं स्वस्थ परेषां वाधनं स्वयम् । प्राप्रकृतिकोशानां भीख मन्त्रात्फलं विदुः ॥ iiकोशोद्वासी प्रकार त्रक्षोभविधायकः । यो विद्वेष्टा विशिष्टानां शत्रुर्मन्त्रिमिचाइसौ ॥ १३९ ॥
१३८ ॥
दुष्ट मंत्री के होने पर राजा की तिनप्रकार हानि होती है। १. केवल तलवारों में ही कोशस्थिति ( ध्यान में रहना) पाई जाती है। अर्थात् म्यानों में ही खन्न धारण किये जाते हैं परन्तु राजा के पास कोश ( खजाना ) नहीं रहता नष्ट होजाता है। २. तन्दुल ( अक्षत - श्रखण्ड माङ्गलिक चावल ) केवल द के अवसर पर पाए जाते हैं, परन्तु राजा के पास तन्दुल (धान्य) नहीं होता। ३. पर्व (अलीरेखा ) हस्त पर होती है परन्तु पर्यो ( दीपोत्सव श्रादि पर्वो ) में उत्सव मानना राजा के यहाँ नहीं होता और ४. ( धन कमाने का उपाय ) जुवा खेलने में पाया जाता है किन्तु राजा के पास तन्त्र ( सैम्य-पलटन) नहीं होता' ॥ १३५ ॥
है राजन् ! कीजिये
अब उक्त विषय पर 'नीतिनेत्र' नाम के महाकवि की निम्नप्रकार पद्य रचना अवय
उस मन्त्री से राज्य की वृद्धि होती है, जो केवल स्वयं अपनी उदर-पूर्ति करनेवाला ( धनलम् ) नहीं है, क्योंकि यदि थालो रोग हुआ यह आदि भोजन स्वयं खा जावे तो खानेवाले को भोजन किस प्रकार मिल सकता है ? अपि तु नहीं मिल सकता। उसीप्रकार यदि धन-सम्पष्ट दुष्ठ मंत्री राजद्रक्य स्वयं हृड़प करने लगे तो फिर राज्य संचालन किसप्रकार होसकता है ? अपि तु नहीं सकता । [ उक्त विषय की विशद व्याख्या हम श्लोक नं० १३१ में कर आये हैं ] निष्कर्ष - लाँच - घूँस न लेनेवाले (निर्लोभी व सुयोग्य ) मंत्री से ही राज्य की श्रीवृद्धि होती है ॥ १३६ ॥ जो राजा मंत्री-आदि सेवकों की वाह्य क्रियाओं ( ऊपरी नमस्कार आदि वर्तावों) से उसप्रकार मुग्ध होता है जिसप्रकार कामी पुरुष वेश्याओं की याह्य क्रियाओं (कृत्रिम रूपलावण्य व गीत नृत्य आदि प्रदर्शनों) से मुग्ध होजाता है, उस मुग्ध हुए राजा को सेवक लोग ( मन्त्री श्रादि अधिकारी गण ) उसप्रकार भक्षण कर लेते हैं। श्रर्थात्राजकीय द्रव्य हड़प करके सत्यहीन बना देते हैं जिसप्रकार वेश्याएँ उनकी उक्त बाह्य क्रियाओं से ग्व हुए कामी पुरुष को भक्षण कर लेती हैं-निर्धन ( दरिद्र ) बना देती हैं३ ।। १३७ ॥ नीविवेत्ताओं ने कहा है कि मन्त्र ( राजनैतिक सलाह ) से निम्नप्रकार प्रयोजन सिद्ध होते हैं - १. शत्रुओं द्वारा स्वयं को पीड़ित न होने देना. २. स्वयं शत्रुओं को पीड़ित करना, ३. प्रजा और प्रकृति ( मन्त्री-आदि अधिकारीगण ) की लक्ष्मी का वृद्धिंगत होना । भाषार्थ - मन्त्र द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोजन के विषय में हम पूर्व में विशद विवेचन कर चुके है ४ १३८ ॥ ऐसा मन्त्री, जो कोश ( खजाना ) खाली करता है, प्रजा का ध्यास करता है, सैम्य ( पलटन क्षुब्ध —कुपित — करता है और सज्जन पुरुषों से द्वेष करता है, मह, मन्त्री के बहाने से शत्रु ही है"
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)
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१३६ ॥
X 'परेषां वथनं स्वयं' क० । ii 'कोनाशी' क० 1
'यो केष्टा च विशिष्ट क० ।
ॐ प्रस्तुत शास्त्रकार महाकवि श्रीमत्सोमदेवसूरि का नाम ।
१, परिसंख्यालंकार 1 १. इष्टान्तालङ्कार । ३. उपमालङ्कार व आक्षेपालङ्कार। ४. जाति- अलङ्कार ५. रूपकालङ्कार ।