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________________ R यरास्तिलकचम्पूकाव्ये मामधनंजयस्वभीमानजिनार्थी पृथ्वीशः पुरुषास्नयस्नार्थी । सचिवरम पहितार्थी पदि मवति कुतस्तु कलिकालः ॥१०॥ भूपतिमतः सबमिस्तः सवित्रजमो दुर्जनाचनः सृजभः । महता मसाज जातेश्वर्यः कार्परच ॥१४॥ कषिकोविदस्पकपटपटुभिधांपादास्यैः पुरःस्फुटचाटुभिर्वहिरुपहितप्रायोमायसुधा प्रतिकाशयः । मसि कलवतन्त्रावापप्रयोगभयानुगैरपतिस्मृतः कृत्योमात्यैोऽशोपि च ॥१४॥ पदीपछसि धाशीकk महीशं गुणय देयम् । बहुमायामयं वृसं विसं चाकरुणामयम् ॥१४॥ भयानन्तर हे राजन् ! अब प्रस्तुत विषय पर 'मानधनंजय' नाम के कषि की निमप्रकार छन्द-रचना श्रवण कीजिए जहाँपर लक्ष्मीयाम् ( धनाढ्य ) पुरुष यदि याचक-जनों का प्रयोजन सिद्ध करता है और राजा पुरुषरूपी रसों के संग्रह करने का प्रयोजन रखता है एवं मन्त्री दूसरों के उपकार करने का प्रयोजन रलता है, वहाँपर कलिकाल की प्रवृत्ति ( जनता का दुःखी होना) किसप्रकार होसकती है? अपितु नहीं होसकती ॥१४॥ राजपुत्र का दुष्टों ( चुगलखोरों ) की संगति करने में तत्पर होना और मन्त्री लोगों का दुष्ट (नाई ष चाण्डाल-आदि नीच कुलबालों का पुत्र ) होना एवं सजन पुरुष का निर्धन ( दरिद्र) होना तथा लोभी ( कंजूस ) को ऐश्वर्यशाली होना, ये सभी बातें विद्वान पुरुषों को मस्तकशूल (असहनीय) । ११४१॥ हे राजन् ! अब आप 'कविकोविद'' नामके विद्वान ऋषि को निम्न प्रकार पञ्च-रचना कर्णामृत . कीजिए--हे राजन् ! ऐसे मन्त्रियों द्वारा राजपत्र पराधीन व निर्धन (दरिद्र) भी किया आता है, जो बचना (धोखा देने ) में 'चतुर हैं, जिनके मुख से प्रचुर निन्द्य वाणी निकलती है, अर्यात्-जो राजा-आवि का मर्म भेदन करनेयाले, श्रद्धा-हीन व निरर्थक बहुत वचन बोलते हैं, जो राजा के आगे उसकी स्पष्ट रूप से मिध्या स्तुति करते हैं, जिनके द्वारा बाह्य में प्रायः मायाचार ( धोखेबाजी ) का बांध किया गया है और जिनका अहिंसा-श्रादि व्रतों के पालन करने का अभिप्राय मुंठा (दिखाऊ-बनावटी). होता है एवं जो केवल वचनमात्र में राजा के समक्ष प्रयोजन (शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना-पाधि राजा का कार्य को सिद्ध करनेवाली सेना की प्राप्ति की कर्त्तव्य-नीति का अनुसरण करते हैं। अर्थात्जो सैन्य-संगठन-आदि किसी भी राजनैतिक कार्य को कार्यरूप में परिणत न करते हुए केवल पजा से यह कहते हैं कि हे राजन ! हमारे द्वारा ऐसी सेना का संगठन करके कर्तव्य-नीति का भली-भाँति पालन किया गया है, जो कि शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने व अप्राप्त राज्य की प्राप्ति तथा प्राप्त राज्य के संरक्षण करने में समर्थ होने के फलस्वरूप सफल ( सार्थक प्रयोजन सिद्ध करनेवाली ) है ।। १४२ ॥ हे विद्वन् ! यदि आप राजा को अपने वश में करने की इच्छा करते हैं, तो निप्रकार की दो गावों का अभ्यास कीजिए. या जानिए। १. अपना धर्ताव विशेष धोखा देनेवाला बनाइए पौर २, अपना वित्त निर्दय बनाने का अभ्यास कीजिए । १४३ ॥ • भयं शुखपाठः ह. लि क. प्रतित: संकसितः, मु. प्रतो । 'यदि भवति ततः कृतस्तु कलिकाल इति पाठा । 1. रूपक व माझेपालंकार । २. समुच्चयालंकार। 1. समुच्चयालंकार । ४. समुपयालंकार । । प्रस्तुत शास्त्रका महाकवि आचार्यश्री श्रीमत्सोमदेवरि का नाम । । प्रस्तुत शाआकार का नाम ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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