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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ताह
एक हम्यान वा इन्यादिषुः क्षिप्तो धनुष्मता। प्राज्ञेन तु मतिः क्षिप्ता इत्यागर्भगतानपि ।। ४८ ॥ महान शक्तिशाली शत्रु भी नष्ट कर दिये जाते हैं, अतः उन्हें हीन-शक्ति व महाशक्ति-शाली शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने की चिन्ता नहीं होती। भावार्थ उक्त विषय पर प्रस्तुत नीतिकार आचार्यश्री, शुक्र एवं गुरु विद्वानों के उद्धरणों का भी यही अभिप्राय है ॥ ७॥ धनुर्धारी पुरुष द्वारा फैका हुआ याण एक शन्न का घात करता है अथवा नहीं भी करता परन्तु नीतिवेत्ता द्वारा प्रेरित की हुई बुद्धिशक्ति तो गर्भस्थ शत्रुओं का भी घात कर देती है। पुनः सामने वर्तमान शत्रुओं के घात करने के बारे में तो कहना ही क्या है। अर्थात्- उनका बात तो अवश्य ही कर डालती है।
भावार्थ-यहाँपर 'उपायसर्वज्ञ' नाम का मंत्री यशोधर महाराज के प्रति प्रस्तुत नीतिकार" द्वारा कही हुई निन्नप्रकार की विजिगीषु राजाओं की तीन शक्तियों ( मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति व उत्साहशक्ति) में से मन्त्रशक्ति व प्रभुशक्ति का विवेचन करता हुआ उनमें से मन्त्रशक्ति (ज्ञानबल) की महत्वपूर्ण विशेषता का दिग्दर्शन करता है। ज्ञानबल को 'मंत्रशक्ति' कहते हैं और जिस विजिगीषु के पास विशाल खजाना व हाथी, घोड़े, रथ व पैदलरूप चतुरङ्ग सेना है, यह उसकी 'प्रभुत्वशक्ति' है तथा पराक्रम व सैन्य शक्ति को 'उत्साहशक्ति' कहते हैं एवं प्रभुशक्ति ( शारीरिक बल ) की अपेक्षा मन्त्रशक्ति (बुद्धिबल) महान सममी आती है। प्रस्तुत नीतिकार ने कहा है कि जिसप्रकार नीतिज्ञों की बुद्धियाँ शत्रु के उन्मूलन करने में समर्थ होती है उसप्रकार. वीर पुरुषों द्वारा प्रेषित किये हुए बाण समर्थ नहीं होते । गौतम विद्वान का उद्धरण भी तीक्ष्ण वारणों की अपेक्षा विद्वानों की बुद्धि को शत्रु-वध करने में विशेष उपयोगी बताता है। प्रस्तुत नीतिकार ने लिखा है कि 'धनुर्धारियों के बाण निशाना बाँधकर चलाए हुए भी प्रत्यक्ष में वर्तमान लक्ष्यभेद करने में असफल होजाते हैं परन्तु बुद्धिमान् पुरुष युद्धिबल से विना देखे हुए पदार्थ भी भलीभाँति सिद्ध कर लेता है। शुक्र" विद्वान् का उद्धरण भी बुद्धिवल को अष्टकार्य में सफलताजनक बताता है।॥ १॥
१. तथा च सोमदेवसूरि:--माल्पं महद्वापशेफोपायज्ञस्य । नदीपूरः सममैवोन्मूलयति तौरजतृणाहिपान् ।। १. तथा च शुक्रः वश्चौपायान् विजानाति शत्रूणां पृथिवीपतिः । तस्याग महान् शत्रुस्तिष्ठते न फुतो लघुः ॥५॥ ३. तथा च गुरु-पार्थिवो मृदुवाक्थैर्यः शत्रुनालापयेत् सुधीः । नाशं नयेच्छनैरतांश्च तौरजान सिन्धुपूरवत् ॥१॥
नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पृ. २०२-२०३ से संकलित–सम्पादक ४. हष्टान्तालंकार ।
५. तथा च सोमदेवरिः-ज्ञानबलं मन्त्रशक्तिः ॥१॥ कोशदण्डबलं प्रभुशक्तिः ॥२॥ विक्रमो बलं चोत्साहन शक्तिस्तत्र रामो दृष्टान्तः ।।३।।
६. तथा च सोमदेवसूरि:-बुद्धिशक्तिरात्मशोरपि गरीयसी ।।४।। ५. तथा च सोमदेवसूरि:-न तथेषधः प्रभवन्ति यथा प्रशायता प्रज्ञाः १५11
८. तया च गौतमः-न तथात्र शसस्तीक्ष्णाः समर्थाः स्यूरिपोर्वधे। यथा बुद्धिमता प्रशा तरमात्तां सन्नियोजनेत ।।१।। नीतिवाक्यामत (भाषादीका-समेत ) पृ. ३७३-३४४ से संकलित--सम्पादक
९. तथा च सोमदेवसूरि:-दृष्टेऽप्यर्थे सम्भवन्त्यपराखेपको धनुष्मताऽष्टमर्थ साधु साधयांत प्रज्ञावान् ॥१॥
१०. तया च शुकः--धानुष्कस्य शरो व्यर्थों दृष्टे लक्ष्येऽपि याति च । अदृष्टान्यपि कार्याणि बुद्धिनान् सम्प्रसाधयेत् ॥१॥