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तृतीय आवास:
अस्था निजदेशस्य रक्षां यो विजिगीषते । स नृपः परिधानेन वृत्तमौलिः पुमानिव ॥ ७५ ॥ नरस्योपायमूहस्य सुधा भुजविजृम्भितम् । शराः किं व्यस्तसंघानाः साधयन्ति मनीषितम् ॥ ७६ ॥ अयं लघुर्महानेष न चिन्ता नयवेदिनु । नद्याः पूरवाद्यान्ति समं तीरतृणद्रुमाः ॥ ७७ ॥
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हे राजन! [ सबसे पहले राजा को अपने राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए ] क्योंकि जो राजा अपने राष्ट्र की रक्षा न करके दूसरा देश ग्रहण करने की इच्छा करता है, वह उसप्रकार हँसी व निन्दा का पात्र होता है। जिसप्रकार अन्य वख ( धोती) उतारकर उसके द्वारा अपना मस्तक वेष्टित करनेवाला ( साफा बाँधनेयाला ) मानव हँसी व निन्दा का पात्र होता है। भावार्थ- नीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने कहा है कि 'जो राजा स्वदेश की रक्षा न करके शत्रुभूत राजा के राष्ट्र पर आक्रमण करता है, उसका यह कार्य नंगे को पगड़ी बाँधने सरीखा निरर्थक है । अर्थात् – जिसप्रकार नंगे को पगड़ी बाँध लेने पर भी उसके नंगेपन की निवृत्ति नहीं हो सकती उसीप्रकार अपने राज्य की रक्षा न कर शत्रु-देश पर हमला करनेवाले राजा का भी संकटों से छुटकारा नहीं हो सकता । विदुर" विद्वान् के उद्धरण का अभिप्राय यह है कि "विजिगीषु को शत्रु राष्ट्र नष्ट करने के समान स्वराष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए ॥१॥ निष्कर्ष - प्रस्तुत 'उपाय सर्वज्ञ' मंत्री उक्त उदाहरण द्वारा यशोधर महाराज को सबसे पहिले अपने राष्ट्र की रक्षा करने के लिए प्रेरित कर रहा है ३ ॥७५॥ हे राजन् ! [विजिगीषु राजा को शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के उपायों-साम व दानआदि का ज्ञान होना आवश्यक है ] क्योंकि विजयश्री के उपायों (साम, दान, दण्ड व भेदरूप तरीकों ) को न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति निरर्थक है— विजयश्री प्राप्त करने में समर्थ नहीं होसकती । उदाहरणार्थ - धनुष पर न चढ़ाए हुए कर क्या करने में समर्थ होसकते हैं ? अपि तु नहीं होसकते । श्रर्थात् जिसप्रकार धनुष पर न चढ़ाए हुए बारा लक्ष्य भेद द्वारा मनचाही विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकते उसीप्रकार साम व दान आदि शत्रु विनाश के उपाय को न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति भी शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त नहीं कर सकती। भावार्थ - प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री ने साम व दान आदि विजयश्री के उपायों का माहात्म्य निर्देश करते हुए कहा है कि 'साम व दान आदि नैतिक उपायों के प्रयोग में निपुण, पराक्रमी एवं जिससे अमात्य आदि राज कर्मचारीगण व प्रजा अनुरक्त है, ऐसा राजा अल्प देश का स्वामी होने पर भी चक्रवर्ती- सरीखा निर्भय माना गया है। प्रकरण में प्रस्तुत मन्त्री यशोधर महाराज के प्रति कहता है कि राजन् ! साम आदि उपाय न जाननेवाले विजिगीषु राजा की भुजाओं की शक्ति उसप्रकार निरर्थक है जिसप्रकार धनुष पर न चढ़ाए हुए बारा निरर्थक होते हैं" ।। ७३ ।।
हे राजन् ! राजनीति वेत्ताओं को इसप्रकार की चिन्ता नहीं होती कि यह शत्रु हीनशक्ति युक्त है और अमुक शत्रु महाशक्तिशाली है। क्योंकि नदी का पूर ( प्रवाह ) आने से उसके तटवर्ती वृक्ष व घास एक साथ थक कर गिर जाते हैं । अर्थात् — जिसप्रकार नदी का पूर उसके तटवर्ती वृक्ष व घास को एक साथ गिरा देता है उसीप्रकार नीतिवेत्ताओं के साम व दानादि उपायों द्वारा भी हीन शक्ति व
१.
तथा च सामदेवसूरि :- स्वमण्डलमपरिपालयतः परदेशाभियोगो विसनस्थ शिरोवेष्टनमिव ॥१॥
२.
तथा च विदुरः—य एव यत्नः कर्तव्यः परराष्ट्र विमर्धने । स एवं यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्रपरिपालने ॥१५ ३. उपमालंकार | नीतिवाक्यामृत (भा. टी.) व्यवहार समुद्देश प्र. ३७५ से संग्रहीत - सम्पादक ४. तथा च सोमदेवसूरिः — उपायोपपाचिकमोऽनुरकप्रकृतिरस्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्वभौमः । नीतिवाक्यामृत व्यवद्दारसमुद्द ेश्च सूत्र ७८ ( भा. टी.) पृ. ३७८ से संकलित - सम्पादक ५.
आपालंकार |
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