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तृतीय आश्वासः
३२४ गास्तिष्ठ समैः पुरोनखसमं हस्तं निधेहि क्षितौ दृष्टिं देहि करामतः स्थिरमनाः कर्णी गजाश्लेश्य । वालं धाश्य वत्स यावदचिरान्मौन्यामहं कल्पो मात्राणां शतमास्व तावदचिप्लस्त्वं योगिकल्पातः ॥ २८३ ॥
एवं स्थापनायां यथास्थान गावापरकरनयनश्रवणवालदेशनिवेशेषु कुशल, समसमाहितनिःस्पन्दसर्वदेशपेशल, समुन्मिपत्र्वजन्माभ्यस्त्रक्रियाकलाएनैपुण्य, दमकलोकोपदिश्यमानविनयग्रहणप्रवण, निष्पन्नयोगीवावगणितोपान्ताहितफान्तयस्सुजात, महामुनिरिव रुचिरेसराहाराम्यवहरणसुप्रसनस्तान्त, प्रातिशीन इवावधीरितोभयगन्धसंबन्ध, दिव्यचक्षुरित्रावितर्कित. विकृतप्राकृतसामाजिकसामामिकालंकारकलितसमस्तसत्त्वप्रबन्ध, सन्नश्रीन हव मृदङ्गानकशक्ष्वेलितकालादिकोलाहलाविपलब्धयोध, तिमिरिचोपामर्शनाषक्षोदनतोदनादिमाधासंबाधक्षान्तशरीरसौध, अतिनिभृतसमस्ताङ्गतया महामहीधर इव शैलाटनितीघटितवेष्टितावसर इच, छपविनिर्मितायतार इव, मेदिनीमध्यानिरूढ इव च प्ररूढजनमनोविकल्प, हिप हे हे हल,
हे गजेन्द्र ! जब तक मैं ( यशोधर महाराज ) अल्प समय तक तेरी स्तुति-सम्बन्धी स्थापना पढ़ रहा हूँ तब तक स्थिरचित्त हुए तुम समान । ऊँचे नीचे राहत ) शारीरिक अङ्गों से स्थित होओ, अग्रनख-जैसी पृथ्वी पर स्थापित करो, सूंड के अग्रभाग ( अङ्गलि ) पर अपनी दृष्टि लगाओ, अपने दोनों कान निश्चल करो एवं हे पुत्र ! पूछ संचालित मत करो (निश्चल करो) तथा ध्यानस्थ मुनि-सी आकृतिवाले तुम निश्चल होते हुए बहुत काल तक स्थित ( जीवित ) रहो' ||२८३॥
इसप्रकार स्तुति-स्थापना के अवसर पर शारीरिक अङ्ग (पाद-आदि ) सथा दूसरे सैंड, नेत्र, कर्ण और पूंछ-देश के स्थानों में यथास्थान कुशल ( प्रवीण ), सम ( सीधे ) रूप से स्थापित व निश्चल शारीरिक अवयवों से सुन्दर एवं उत्पन्न होरहे पूर्वजन्माभ्यस्त क्रिया-समूह में निपुण तथा शिक्षक लोगों ( महावत-आदि) द्वारा उपदेश दीजानेवाली शिक्षा (विनय । के स्वीकार करने में प्रवीण ऐसे हे गजराज ! तुम चिरकाल पर्यन्त जीवित रहो। इसीप्रकार जिसने समीप में स्थापित हुए अत्यन्त मनोहर स्त्री-आदि पस्तु-समूहों को उसपकार तिरस्कृत किया है, जिसप्रकार पूर्ण ध्यान में स्थित हुमा ऋषि समीपवर्ती अत्यन्त मनोहर वस्तु-समूहों को तिरस्कृत करता है। जिसका मन मनोज्ञ व अमनोज्ञ आहार के आस्वादन करने में उसप्रकार निर्मल है जिसप्रकार दिगम्बर आचार्य का मन मनोज्ञ व अमनोज आहार के आस्वादन करने में निर्मल होता है। जिसने सुगन्धि व दुर्गन्धि इन दोनों का संयोग उसमकार तिरस्कृत किया है जिसप्रकार विकृत कफवाला मानव सुगन्धि व दुर्गन्धि का संयोग तिरस्कृत करता है। जिसने विकृत ( रोगी और घृण के योग्य पुरुष), नीचलोक, सामाजिक ( सेवकगण ), शस्त्रधारक पीरपुरुष और आभूषणों से अलङ्कृत पुरुष इन समस्त प्राणियों का संबंध उसप्रकार तिरस्कृत किया है जिसप्रकार अन्धापुरुष उक्त विकृत प नीच लोग-आवि समस्त प्राणियों का संबंध तिरस्कृत करता है। जिसका ज्ञान मृदा, नगाड़ा शह सिंहनाद और काल ( भेरी विशेष )-श्रादि वाजों के कलकल शब्दों द्वारा उसप्रकार स्खलित । नष्ट) नहीं किया गया जिसप्रकार बहिरे मानव का ज्ञान उक्त मुदङ्ग-आदिबाजों के कलकन शब्दों द्वारा नष्ट नहीं होता। जिसका शरीररूपी महल स्पर्थ (ट्रना ) पाइसंघट्ट व अङ्कशादि. पीडन-इत्यादि की बाधा ( दुःख) की पीड़ा सहन करने में उसप्रकार सहनशील है जिसप्रकार महामग्छ का स्थूल व पुष्ट शरीररूपी मल उक्त स्पशे-आदि के कष्टों को पीड़ा सहन करने में सहनशील होता है। इसीप्रकार अत्यन्त निश्चल शरीर के कारण जो ऐसा प्रतीत होता है-मानों-सुमेरु पर्वत ही है। अथवा जो ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-पवेत के अग्रभाग की तटी के लोहमयो टङ्क (कुदाली-आदि) से घड़ी हुई वस्तु की अवस्था ( वशा) का अवसर ही है। अथया जो ऐसा जान पड़ता है-मानों-गीली
१. जाति या उपमालंकार ।