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________________ ३२६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समं गास्तिठ प्रतिहर कर निराहत शिरः पुझोनम्य स्वहिजमनाः स्वर्षय मुन्न । सतः कल्याणाङ्ग श्रवणयुगल वर्षय गावे यावन्मात्राशतमिदमहं वर्णविधये ॥ २८ ॥ एकमशेष क्रियासौष्ठव, प्रतिक्षाधिष्ठानायां शुभस्थापनायाम् । स्थिरस्थित समस्ताङ्गसंगर्भ, शिक्षावेक्षणाक्षुण्णान्त:करणगर्भ, मरीचिमतगमगशर्माविमहामुमिसमानीतदर्शिताबलोकितगृहीतध्यातनिश्चिताकपालादितिसुतप्रसूतिपूसान्तरालादुपासितुभाषातगणपतिविलोकनम्नहितमयनेन तद्वदनानुरूपवपुःसंपादनसमाहितदयेन सिमसामान्यभिगायता पितामहेन विहितसकलसवातिशायिदेव, त्रिलोचनाच्युसविरिञ्चिविरोचन चन्द्रचित्रभानुप्रभृतिभिर्देवताभिः सबहुविस्मयमुदीरितपरस्परस्वागताभिरधिष्ठितोदारशरीरगेड, निखिलापरप्राणिगणावार्यत्रीय, दिविजकुजकुशवनपासशौर्य, विजदेवगन्धर्वयामहीक्षिताअन्यतमसमपद, क्षोणीशमहामात्रकुलकल्याणपरम्पराफशावरद, हिरव, हे हल, दिव्यसामज, मात्राश विष्ट तिष्छ । हे पुत्र गज ! अपने शारीरिक अप्रभागों से अच्छी तरह स्थित होते हुए छिद्र-हीन सैंड़ संकुचित ( वेष्टित ) करो। हे पुत्र ! मस्तक ऊँचा करके सावधान चित्त होते हुए मुख में सूंद प्रविष्ट करो। तत्पश्चात् माङ्गलिक लक्षण-युक्त शरीरशाली हे गजेन्द्र ! दोनों कर्ण हर्षपूर्वक संचालित करो। मैं ( यशोधर महाराज ) तुम्हारी स्तुति-विधान के अवसर पर यह कहता हूँ कि तुम चिरञ्जीवी होश्रो ॥२८२।। स्थिति के अध्यासन से अलङ्कत ( तुम्हारे दीर्घजीवी रहने की कामनावाली) इस माङ्गलिक स्तुति-स्थापना के अवसर पर सूंड-संचालन-आदि समस्त चेष्टाओं में समीचीनता रखनेवाले हे गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो। निश्चलरूप से स्थित समस्त शारीरिक अङ्गों के मध्यभागवाले और शिक्षा (विनय ) के देखने से परिपूर्ण मानसिक मध्यभाग-युक्त हे गजराज ! तुम दीर्घकाल तक जीवित रहो। हे गज! समस्त प्राणियों की अपेक्षा अतिशयशाली तुम्हारा शरीर ऐसे ब्रह्मा द्वारा, जिसने अपने दोनों नेत्र सेवार्थ आए हुए गणेशजी के देखने में प्रेरित किये है, और जिसने अपना हृदय गणपति के मुखसरीखी तुम्हारी शरीररचना में सावधान किया है एवं जो सामवेद के सात पाक्यों का मन्दरूप से गानकर रहा है, ऐसे विशेषण-युक्त ब्रह्माण्ड के अर्धभाग से रचा गया है, जो (ब्रह्माण्ड का अर्धभाग) मरीचि, मता व मृगशर्मा आदि महर्षियों द्वारा ब्रह्मा के सम्मुख लाया गया, दिखाया गया, देखा गया, जिसके परिणामस्वरूप उसके द्वारा स्वीकार किया गया व चितवन एवं निश्चित किया गया है और जिसका मध्यभाग सूर्य की उत्पत्ति होने से पवित्र है, ऐसे हे गजराज! तुम बहुत समय तक जीवित रहो । इसप्रकारी जिसका अत्यन्त मनोश या विशेष उन्नत शरीररूपी मन्दिर अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक परस्पर में स्वागत ( विशेष सन्मान) प्रकट करनेवाले श्रीमहादेव, श्रीनारायण, ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र व अग्नि-आदि देवताओं द्वारा अधिष्ठित (निवास-युक्त ) किया गया है और जिसकी शक्ति समस्त प्राणिगरमों ( सहस्रमट, लक्षभट व कोटिभट-आदि शूरवीर पुरुषों) धारा नहीं रोकी जासक्ती, अर्थात-जो अनोखी शक्ति से अलकत है एवं जो कल्पवृक्षों के लतापिहित प्रदेशों पर होनेवाले वनपात-जैसी शूरता रखनेवाला है तथा जो परशुराम-आदि ब्राझण, इन्द्र-आदि देवता, गन्धर्व, कुबेर-श्रादि यन, भीम व भीष्म-आदि राजालोग इनमें से किसी एक के साहस का स्थान है। अर्थात् जो इनमें से किसी एक के साहस से अधिष्ठित है और जो महान् राजाओं के महावतों के घंश की कल्याण-परम्परा का उत्कृष्ट फल देनेवाला है, ऐसे हे गजेन्द्र ! हे मित्र ! हे अलौकिक गजेन्द्र ! तुम चिरकाल तक जीवित रहो । • 'क्रियाशौर्यका। 'समसासंदर्भ' क०। * 'सप्तसामपदान्यभिगा यता' कः । १. जाति-अलंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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