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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
कुमुदाकर इव विनकृति विरमति नृपसिर्नरे सरागे हि । स लघु विस्के रज्यति र निरसश्चूर्णरजसीय ॥१६८॥ मुग्धाङ्गनाकेलिकुलस्य
ज्वरार्त इव खिद्येत मन्त्री सत्सु धनव्यये । कृतार्थ इव मदेस बिटवा जीवनादिषु ॥१६९ ॥
भस्मनि हुतमिव महते यह देव तत्फलं करम् । उपयोगिने तु देयं नदाय विटपेटकावापि ॥ १६० ॥ पिण्डीशूराः केवलममी हि सर्वस्वमक्षणे दक्षाः । न हि यामार्थ सम्तः स्वामिन्भट+पिण्डकार्थं वा ॥ १३१ विलासिनीलोचनकवलस्य
येषां धर्मार्थकामेषु दुष्टण्टाकचेटका: । तेषामनन्तरायाः स्युः श्रेयः श्रीयोषितः कुरुः ॥१६२ ॥
राजा अनुराग करनेवाले हितैषी पुरुष से उसप्रकार निश्चय से विरक्त ( द्वेष करनेवाला ) होता है, जिसप्रकार कुमुदाकर ( चन्द्र-विकासी श्वेत कमलों का वन ) सूर्य से विरक्त (विमुख - विकसित न होनेवाला ) होता है और विरक ( अहित - कारक ) पुरुष से उसप्रकार शीघ्र राग (प्रेम) करने लगता है जिसप्रकार आर्द्र हरिद्रा ( गीली हल्दी ) का चूर्ण अग्नि से पके हुए चूने के चूर्ण को शीघ्र रक्त ( लाल रंगवाला ) कर देता हूँ' ।। १५८ ।।
हे राजन् ! अब आप 'मुग्धाङ्गना कलिकुतूहल' नाम के कांवे की पद्य रचना श्रवण कीजिएमन्त्री विद्वान् पुरुषों के लिए धन वितरण करने पर उसप्रकार दुःखी होता है जिसप्रकार ज्वर-पीड़ित पुरुष दुःखी होता है और विटों ( परस्त्रीलम्पटों ) तथा मद्यपान करनेवाले स्तुतिपाठकों आदि के लिए धन देने पर उस प्रकार हर्षित होता है जिसप्रकार कृतार्थ पुरुष ( इष्ट प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ) 'आज मेरा जीवन सफल होगया' ऐसा मानता हुआ हर्षित ( उल्हासित - आनंदविभोर ) होता है * ॥ १५६ ॥ हे राजन! मन्त्री ऐसा मानता है कि साधुपुरुष ( सद्गुरु ) के लिए दिया हुआ समस्त धन भस्म में होम करने सरीखा निष्फल होता है परन्तु ऐसे निज मन्त्री के लिए, चाहे यह नट ही क्यों न हो और व्यभिचारियों फै समूह को रखनेवाला भी क्यों न हों, धन का देना सफल होता है || १६० ॥ हे स्वामिन्! ये साधु लोग निश्चय से केवल भोजनभट्ट और समस्त धन-भक्षण करने में चतुर होते हैं, क्योंकि निश्वय से साधुलोग [ प्रजा की रक्षार्थ ] रात्रि में पहरा नहीं देते और न युद्धभूमि पर शूरवीरों के लिए भोजन देने में दक्ष (प्रवीण) है। अर्थात् - इनसे न तो नगर-रक्षा का ही प्रयोजन सिद्ध होता है और न शत्रुओं पर विजयश्री की प्राप्तिरूप प्रयोजन ही सिद्ध होता है ।। १६१ ।।
हे राजन् ! अब आप + 'विलासिनीलोचनकज्जलं' नाम के कषि का काव्यामृत कानों की अञ्जि पुटों से पान कीजिए :
हे राजन् ! जिन राजाओं के समीप धर्म, अर्थ व काम के निमित क्रमशः दुष्ट, लुटेरे परस्त्रीलम्पट ( व्यभिचारी ) मंत्री वर्तमान होते हैं । अर्थात्-दुष्ट मन्त्रियों के होने पर धर्म-संरक्षण नहीं हो सकता और चोर मन्त्रियों के होने पर धन सुरक्षित नहीं रह सकता और परस्त्रीलम्पट मन्त्रियों के होने पर काम संरक्षण नहीं होसकता; अतः उन राजाओं के यहाँ धर्म, अर्थ व काम किस प्रकार निर्विघ्न सुरक्षित रह सकते हैं ? अपि तु नहीं रह सकते । निष्कर्ष - दुष्ट मन्त्रियों द्वारा धर्म, चोर मन्त्रियों
+ अयं शुद्धपाठः च० प्रतितः संकलितः, मु. प्रती तु 'भटपेटिका वा' 'भटानां भोजनं दातुं दक्षा:' इति टिप्पणी +
* प्रस्तुत शास्त्रकार भाचार्यश्री ( श्रीमत्सोमदेवसूरि ) का हास्यरसनक कल्पित नाम – सम्पाक
१. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार । ३. उपमालंकार । ४. जाति - अलंकार ।
4 'दास्परसत्रिव प्रस्तुत यात्रकार आचार्य श्री का नाम - सम्पादक