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एतीय भाषासः पदप रयतेमाल्पैः फासमाकाराज क्वचित् । तत्सर्वस्वापहाराष मुग्धेषु पुरधूर्तबार ॥१५॥ xसंभाषयस्पमास्योऽयं यत्स्वमेव महीभुजि । सपन्यस्माद्विवेकोऽस्य मा भूम्मपि धनामिनि ॥१६॥
अन्यथा-किं कुर्वस्ति खलाः पुंसां विशुध्वनि धावताम् । इति मत्वा प्रमोहाते महातो बाधिष्ठिताः ॥१५॥ सारस्तमीकैसवकौतुकस्य-और्वोऽसर्वः सुधाम्मोधी भूपाल प्रबलाः स्वलाः । सदपश्चिन्ने सान रलमनुपनवम् ॥१५॥ प्रदो प्रहागामसुरोऽसुराणां यमो षमस्यापि नृपस्य मन्त्री । एवं न श्रेदेव कथं नु जीकारणं कोषिकामकालः ॥१६॥
मपि चा विजितो जन्तुना मृगपतिरिमामामिव कुळे सखियोऽद्रीणामयमसमरोधिः क्षितिहाम् ।
हिमातानोजजामा तपतपनकालश्च सरलाममुरकाः कोऽपि प्रकृतिखलभावेन महताम् ॥१३॥ द्वारा अर्थ (धन) व व्यभिचारी मन्त्रियों द्वारा काम नष्ट होजाते है ।। १६२ ॥ मन्त्रियों द्वारा कही पर जो थोड़ा तव्य भन्न प्रकृतिषाले अथवा मूर्ख राजा के लिए दिखाया जाता है कहा जाता है। अर्थात्-मन्त्रीगण जो किसी अवसर पर राजाओं के प्रति कहते हैं कि "हे राजन् ! "अहाँपर बीस हजार की आय है वहाँपर हम लोग सीस हजार उत्पन्न करेंगे" उस आय-द्रव्य को आकाश-पुष्पसमान असत्य सममानी चाहिए। अर्थात-जिसप्रकार आकाश-पुष्प कँठा है उसीप्रकार राजा के लिए उस द्रव्य का मिलना भी भूठा है परन्तु राजा के लिए बताई हुई यह थोड़ी द्रव्य (धन) उसप्रकार मन्त्रियों के पूर्ण अपहरण-हेतु ( भक्षणार्थ) होसी है जिसप्रकार फाटक व दमनक नामके गीदड़ों द्वारा सिंहक लिए बनाया हुआ थोड़ा सा मांस उनके स्वयं भक्षणार्थ होता है। ॥ १६३ || यह मन्त्री राजा के समक्ष अपने श्रीमुख से जो आत्म-प्रशंसा करता है, वह इसलिए करता है कि भुम धन-भक्षक मन्त्री के होने पर इस राजा को दूसरे पुरुष से चतुराई प्राप्त न होने पावे ।। १६४ ॥ अन्यथा-अपि धन-भक्षक मन्त्री नहीं है तब महान ( चारों वर्ण व चारों आश्रमों के गुरु ) राजा लोग ऐसा निश्चय करके कि 'विशुद्ध मार्ग (प्रजापालन ष सदाचाररूप सत् प्रवृत्ति) पर शीन चलनेवाले राजाओं या महापुरुषों का दुष्ट लोग क्या कर सकते है ? अपि तु कुछ नहीं कर सकते' । बहुत से मन्त्रियों से सहित होते हुए सुखी होते हैं ।।१६।।
हे राजन् ! अब श्राप सारस्तनोकतवकौतुक' नाम के महाकवि की निम्नप्रकार कान्यकता श्रवण कीजिए...
क्षीरसागर में बड़वानल अग्नि विशेषरूप से वर्तमान है और राजा के निकट दुष्ट मन्त्री विशेष शक्तिशाली होते हुए पाए जाते हैं एवं चन्दन वृक्ष पर विशेष उत्कट सौंप लिपटे रहते हैं, इसलिए नीति यह है कि रत्न ( उत्तम परतु ) उत्पात-शून्य नहीं होती । अर्थात्-उत्पात (उपद्रव) करनेवाली वस्तु से व्याप्त होती है ।।१६६|राजा का [ दुट] मन्त्री, जो कि विद्वानों की अभिलषित वस्तु को निष्कारण नष्ट करता है, शनि, महल, राहु व केतु-आदि दुष्ट मदों के मध्य प्रधान दुष्ट गाङ् है और असुरों में मुख्य असुर है एवं काल (मृत्यु) का भी काल है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं है तो यह ( दुष्ट मन्त्री) किसप्रकार जीवित रह सकता है? अपितु नही जीवित रह सकता। अभिप्राय यह है कि इस पापी दुष्ट मन्त्री को दुष्ट ग्रह, असुर व काल नहीं मारते, इससे एक बात यथार्थ प्रतीत होती है ॥ १६७ ॥ हे राजन् ! मिशेषता यह है कि यह आपका मन्त्री स्वाभाविक दुष्टता के कारण महान् पुरुषों के कुल में उसप्रकार कोई अपूर्व क्रूर ( दुष्ट ) उत्पन्न हुमा है
x 'समर्पयत्यमास्पोऽयं का घ० च । 1, ययासंख्य-अलंकार । २. उपमालंकार। ३. जाति-अलंकार । ४. आक्षेपालंकार । .प्रस्तुत भावकार का हास्यरत-अमन नाम-सम्पादक ५. मर्यान्सरन्यास अलंकार । १. रूपक प अनुमान अलंकार।