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________________ २७ यशस्विनकचम्पूचव्ये तदुक्तं कैश्चिद्विपश्चितिरेतदेव हृदयस्थमपि शिकार कर्तुमसरनिः समासोक्तिमिपेणप्रतीने वातास्था सकतसुलभ तदिनमई यतो बावारोऽमी प्रलस्मयस्वादनतरोः । अमीषां पापानामिह हि पसतामेष महिमा कदाप्येसचायाममिलपति पत्रावगममः ॥१६९॥ प्रौढनियापानयोत्पकस्य सत्र कर्थ ननु सम्तो पत्रास्ते बच्चतुष्टयं युगपत् । कलिकाला खालकालो नुएकाला सचिवका १०॥ जिसप्रकार पशुओं के कुल में सर्प, हाथियों के कुल में सिंह, पर्वतों के कुल में उनको विध्वंस करनेवाला विजलीदण्ड, वृक्षों के समूह में अग्नि ( दावानल-अग्नि) एवं कमल समूह में प्रालेय-पटल (पर्फमण्डल) उत्पन्न होता है और जिसप्रकार तड़ाग-समूह में क्रूर प्रीष्मकाल उत्पन्न होता है। ॥ १६ ॥ पूर्वोक्त दुष्ट मन्त्री संबंधी वाक्य को कुछ विद्वान कषि लोगों ने, जो कि उसे अपने मन में स्थित रखते हुए भी जिह्वा के अग्रभाग पर लाने के लिए ( स्पष्ट फयान करने ) असमर्थ है, 'समासोक्ति" नामक प्रशद्वार के छल से निम्न प्रकार कहा है: उत्पन्न हुई अपेक्षावाला मैं (गि पुण्य से पास एएस दिन का प्रतीक्षा करा, जिस दिन ये चन्दन वृक्ष पर लिपटे हुए साँप प्रलीन ( नष्ट) होंगे। क्योंकि इन पापमूर्ति साँपों की, जो कि इस चन्दन वृक्ष पर स्थित हो रहे हैं, यह महिमा (प्रभाव) है कि जिसके फलस्वरूप इस चन्दन वृक्ष की छाया को पान्थ ( रस्तागीर ) समूह कभी भी नहीं चाहता। भाषार्थ--उक्त बात के कथन से प्रस्तुत महाकषि उस दिन की प्रतीक्षा करता है, जिस दिन राजारूप वृक्ष का आश्रय करनेवाले दुष्ट मन्त्री नष्ट होंगे, क्योंकि दुष्ट मन्त्रियों से प्रजा-पिनाश निश्चित रहता है। ।। १६६ हे राजन् ! अब आप के प्रौढप्रियापाङ्गनवोत्पल' नाम के महाकवि का काव्यामृत अपने श्रोत्ररूप प्रअलिपुटों से पान कीजिए अहो ! उस स्थान पर सज्जनपुरुष या विद्वान् लोग किसप्रकार स्थित रह सकते हैं? अपितु नहीं रह सकते, जिस स्थान पर निम्नप्रकार चार पदार्थ एक काल में पाए जाते हैं। १. कलिकाल १. समुच्चय, दीपक व उपमालंकार । २. 'समासोकि अलंकार का लक्षण-समासोक्ति: समैर्यत्र कार्यलिङ्गविशेषणैः । व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽश्यस्य वस्तुनः ।। साहित्यदर्पण ( दशमपरिच्छेद ) से सहालित-सम्पादक अर्यात्-जिस काव्य में प्रस्तुत व अप्रस्तुत दोनों में साधारणरूप से पाये आनेवाले कार्य, लिंग (पुल्लिंग, सीलिंग व नपुंसकलिंग के प्रदर्शक चिक), व विशेषणों द्वारा प्रस्तुत ( प्रकृत) धर्मी में दूसरे अप्रस्तुत (अप्रकृत धर्मी ) रूप बन्द की अवस्या विशेष का भलेप्रकार आरोप करना ( अभेद ज्ञान कराया जाना ) पाया जावे, उसे 'समासोक्ति अलङ्कार कहते हैं। अभिप्राय यह है कि-प्रकृत बस्तु में उके कार्य-आदि के कथन द्वारा अप्रकृत वस्तु का शान करानेवाले भलकार को 'समासोक्किा अलद्वार कहते हैं। प्रस्तुत काव्य में प्रकृत चन्दन वृक्ष पर लिपटे हुए सोपों की महिमा ( प्रस्तुत पन्दन इस की छाया का पान्थों द्वारा न चाहना ) के कथन द्वारा अप्रकृत पदार्थ-राजा के समीपचतों दुष्ट मन्त्री का बोध होता है, स्वतः उक काव्य 'समासोक्ति अलङ्कार' से अलकत है-सम्पादक ३. समासोक्ति-अलङ्कार ।। ___* प्रस्तुत शास्त्रकार आचार्य श्रीमस्सोमदेवमूरि का पाठक पाठिंकाओं में हास्यरस की अभिव्यक्ति करनेवाला कल्पित नाम-सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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