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तृतीय आश्वासः
२७४ यसः । गुगरागधति क्षितिभृति सधिवजने सूजनजातिभवने च । लक्ष्मीरिय प्रसीदति सरस्वती पटुघु पारेषु ॥११॥ शूरः समरविदूरः क्षुमी रुद्रः परासरोसारः ।* सामनपि व मामा स्वार्थपर-सहमे ॥ देव ॥१२॥
इस्यात्मसंभावनाजिनामीकमुपहरे हयता प्रकृतयो ज्ञासयश्व कर्थकारं न साधु प्रसादिताः।
प्रजाप्रतिपालनं च तस्य किमिव वण्र्यते । यस्य
पापसमय विष्टिः सिद्धायः क्षिीरिकणिशकालेषु । सघनावसरेपु पुनः स्वच्छन्दः सैनिकायाधः ॥१५३॥ (दुषमाकात ), २. खलकाल, अर्थात-जहाँ पर दूसरे की निन्दा व चुगली करनेवाले दुष्टों की, जो कि काल (मृत्यु) समान भयंकर होते हैं, स्थिति पाई जाती है, ३. नृपकाल ( काल के समान विना विचारे कार्य करनेवाला-मूर्ख राजा)। अर्थात्-जिसमकार काल सभी धनी, निर्धन सजन व दुर्जनों को एकसा मृत्यु-मुख में प्रविष्ट करता है उसीप्रकार जो राजा शिष्टों व दुष्टों के साथ एकसा वर्ताव ! निग्रह-आदि) करता है और ४. मन्त्रीरूपी काल अर्थात् - काल ( मृत्यु ) के समान प्राणघातक दुष्टमन्त्री । निष्कर्ष-जिस स्थान पर अनिष्ट करनेवाले उक्त चार पदार्थ वर्तमान हों वहाँ पर विद्वान् सज्जनों को निवास नहीं करना चाहिए, अन्यथा-निश्चित हानि होती है।॥७॥ क्योंकि जब राजा गुण व गुणी पुरुषों के साथ अनुराग करता है और जब मन्त्रीलोक सज्जन-समूह को सन्मानित करनेवाला होता है तब चतुर पायों ( सदाचारी व सुयोग्य विद्वानों ) से सरस्वती उसप्रकार प्रसन्न ( वृद्धिंगत ) होती है जिसप्रकार लक्ष्मी प्रसन्न होती है । १७१।।
प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर (जब 'शङ्खनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से उक्तप्रकार 'पामरोदार नाम के मंत्री की पूर्वोक्त कटु आलोचना की उसके पश्चात् ) उसने कहा-हे राजन् ! जो पुरुष अपनी निम्नप्रकार प्रशंसा करता है, वह मन्त्री पद पर अधिष्ठित होने के योग्य नहीं।।
"हे राजन् ! शूर (बहादुर ) पुरुष के संग्रह से कोई लाभ नहीं : क्योकि यह तो युद्ध के अवसर पर दरवर्ती होजाता है अथवा आप के साथ युद्ध करने के लिए विदूर ( आपके निकटवर्ती) है। तीक्ष्य ( महाक्रोधी) भी संग्रह-योग्य नहीं है, क्योंकि वह क्षुद्र ( आपकी लक्ष्मी देखकर असहिषा ) होता है। अर्थात्-आपसे ईष्या-द्वेष करता है। इसीप्रकार परासर ( जिसकी धन व राज्य-प्राप्ति की लालसाएँ बढी हुई है) भी अयोग्य ही है और असार ( राजनैतिक ज्ञान व सदाचार सम्पत्ति से शून्य) भी पैसा ही है। इसीप्रकार राजा का मामा, श्वसुर व बहनोई भी संग्रह योग्य नहीं। पर्थातये सब राजमंत्री होने के अपात्र (अनधिकारी) हैं। इसलिए है देव ! आपका कार्य सिद्ध करनेवाला में ( 'पामरोदार' नाम का मन्त्री ) ही आपका सच्चा मन्त्री हूँ, क्योंकि उक्त दोष मेरे में नहीं पाए जाते ]" ||१७॥
हे राजन् ! उक्तप्रकार आत्मप्रशंसारूप पटु वाणी बोलनेवाले उस पामरोदार' नाम के मन्त्री को एकान्त में बुलाते हुए श्रापने प्रजाजन व कुटुम्बीजन किस प्रकार प्रसादित---सन्तापित नहीं किये ? अपि तु अवश्य सन्तापित किए।
हे राजन् ! आपके उस पामरोदार' नामके मन्त्री का प्रजापालन क्या वर्णन किया जावे ? अपि तु नही वर्णन किया जासकता।
जो बीज बपन करनेके अवसर पर किसानों को बेगार में लगा देता है, जिसके फलस्वरूप वे लोग वीज-वपन नहीं कर सकते और दूधवाली काय-मारियों के उत्पन्न होने के अवसर पर अर्थान्
* 'भावसमोऽपि क । क्षीरफणिशकालेपुर का । १. समुच्चयालंकार । २. उपमा व यथासंस्य-अलंकार । ३. समुच्चयालङ्कार ।