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यशस्विमकचम्पूकाव्ये राजा कर्णे विधाय शान्तं पापमिति प्रते-'माः पापाचार खारपटिक, महामागे समागतगुरुगुणानुरागेच ४ तस्मिन् मै पापं भाषीष्ठाः ।' + कापटिक: प्राइ
'देव, लोचनागौचराया कार्याले चारसंघारी विचारश्च मरेश्वराणां प्रायेणेक्षणवूयम् । तच देवस्य दिव्यचक्षुष व नास्ति । फेवलं मिथ्याभिनिवेशानुरोधान्मनोमोहनौषधानुबन्धाता विपर्यासवसतिर्मतिः । तथा चोक शास्त्रान्तरेपालों की अपरिपक अवस्था में भी जो टेक्स वसूल करता है एवं जो धान्य की फसल काटने के अवसरों पर दूसरी चार [अश्वारोही-घुड़सवार ] सैनिकों के संचार द्वारा स्वच्छन्द-निरर्गल-उपद्रव उपस्थित करता है-फसल को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है ॥१७३॥
तत्पश्चात् ('शङ्खनक' नाम के गुप्तचर द्वारा उक्त विस्तृतरूप से की हुई 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की कटु आलोचना को श्रवण करने के अनन्तर ) 'यशोधर महाराज' अपने दोनों हस्तों द्वारा कानों को बन्द करके जिसप्रकार से प्रस्तुत कटु आलोचना शान्त हो उसप्रकार से आश्चर्य पूर्वक 'शजनक नाम के गुप्तचर के प्रति क्रोध प्रकट करते हुए या स्वये पीड़ित होते हुए कहते हैं-"रे पापकर्मा ठग शङ्कनक ! इस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री के विषय में, जो कि पुण्यवान् है और महागुणवान् विद्वान् पुरुषों के साथ जिसका स्वाभायिक स्नेह भलीप्रकार से चला आरहा है, तू इसप्रकार पाप-युक्त वचन मत बोल । अभिप्राय यह है कि महापुरुषों की कटु आलोचना के श्रवण से मुझे भी पाप ला जायगा।
भाषार्थ महाकवि कालिदास' ने भी महापुरुषों की निन्दा करनेवालों और सुननेवालों के विषय में भी उक्त बात का समर्थन किया है। अर्थात-जब श्रीशकर जी ब्रह्मचारी का भेष धारण कर उनको पति बनाने के उद्देश्य से तपश्चर्या करती हुई श्री पार्वती के पास पहुँचकर अपनी कटु आलोचना (हे सुलोचने श्रीशङ्कर तो सर्प-यलय ( कहा ) बनाकर पहिनता है-आदि ) करते हैं, उसे सहन न करती हुई श्री पार्वती अपनी सखी से कहती है कि 'हे सखी ! फड़क रहे हैं ओंठ जिसके ऐसा यह ब्रह्मचारी श्री शङ्कर के बारे में फिर भी कुछ कटु आलोचना करने का इच्छुक होरहा है, अतः इसे रोको, क्योंकि केवल महापुरुषों की निन्दा करनेवाला मानव ही पाप का भागी नहीं होता अपि तु उनकी निन्दा को सुननेवाला भी पाप का भागी होता है। प्रकरण में यशोधर महाराज 'शद्धनक' नाम के गुप्तचर से कहते हैं कि "हे शजनक ! उस पुण्यशाली और महागुणी विद्वानों के साथ सुचारुरूप से स्वाभाविक प्रेम प्रकट करनेवाले 'पामरोदार' मंत्री की कटुआलोचना मत कर, अन्यथा सुननेयाले मुझे पाप लगेगा" [ यशोधर महाराज के उक्त वचन सुनकर ] 'शान' नाम के गुप्तचर ने निम्नप्रकार कहा-दे राजन् ! नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर न होनेवाले कार्य-समूह में गुप्तचरों का प्रवेश और विचार ( प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम इन तीन प्रमाणों से वस्तु का निर्णय करना ) ये राजाओं के प्रायः दो नेत्र होते हैं। उक्त दोनों नेत्र (गुप्तचर-प्रवेश और विचाररूप दोनों नेत्र ) आपके उसप्रकार नहीं है जिसप्रकार अन्धे के दोनों नेत्र नहीं होते। केवल असत्य अभिप्राय के प्रभाव से अथवा मन में अज्ञान उत्पन्न करनेवाली औषधि [ पोलेने ] के प्रभाव से आपकी बुद्धि विपरीत स्थानवाली (मिप्या) होरही है। दूसरे नीतिशास्त्रों में कहा है कि
* उक्क शुरुपाठः ग० प्रतित: संकलितः । मु. प्रतौ तु 'राजा को पिंधाय शान्त भूते-'भाः पापाचार कापटिक, : एवं फ० ५० प्रतिकुगले 'राजा कौँ विधाय शान्तं पापमाः पापाचार स्वारपटिक कार्पटिक' इति पाठः ।
x'तस्मिन्नैवं मा भाषिष्ठः क. + 'कर्पटिका' के। १. तथा च महाकविः कालिदासः-निवार्यतामालि किमप्ययं पढ़ः पुनर्विवक्षुः स्फुरितोत्तराधरः ।
न केवल यो महतोऽपभाषते ध्रुपोति तस्मादपि यः स पापमा ॥५॥