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________________ हृवीय प्राशसः पारो यस्य निमम राज्ञो मागीय पदुमा ! काम्यानुग्नवसाय मन्त्रिमाऔरगोचरम् ॥१४॥ जिस राजा के पास गुप्तचर-प्रवेश और विचार इन दोनों गुणों से विशिष्ट वोनों नेत्र नहीं है, उसका राज्य उसप्रकार मन्त्रीरूपी बिदाल (बिल्लव-प्रारूप घूहों का भक्षक होने के कारण) द्वारा प्राप्त करने योग्य होता है जिसमकार अन्धे के सामने रक्खा हुमा दूध मिलावों द्वारा पीने के योग्य होता है। भावार्थ-जिसप्रकार अन्धे के सामने स्थापित किया हुआ दूध बिलावों द्वारा पी लिया जाता है पसीप्रकार गुप्तचर व पिचाररूप नेत्र-युगल से हीन हुए राजा का राज्य भी मन्त्रीरूप दिलावों द्वारा हड़प का जिया जाता है। अतः राजाओं को उक्त दोनों चक्षुओं से अलङ्कत होना चाहिए। गुप्तचर प्रवेश की विशद व्याख्या हम श्लोक नं. ११८ की व्याख्या में विशदरूप से कर आए है अतः, प्रकरण-वश 'विचारतत्व' के विषय में विशद प्रवचन करते हैं मीतिकार प्रस्तुत आचार्य श्री ने कहा है कि 'नैतिक पुरुष को विना विचारे (प्रत्यक्ष, प्रामाणिक पुरुषों के पचन व युक्ति द्वारा निर्णय किये बिना) कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। नीतिवेत्ता जैमिनि विद्वान् ने भी कहा है कि 'ओ राजा प्रजा द्वारा अपनी प्रतिष्ठा चाहता है, उसे सूक्ष्म कार्य भी पिना विचार नहीं करना चाहिए। विचार का लक्षण-निर्देश करते हुए प्रस्तुत नीतिकार आचार्य श्री लिखते हैं कि 'सत्य वस्तु की प्रतिष्ठा ( निर्णय ) प्रत्यक्ष, अनुमान छ आगम इन तीनों प्रमाणों द्वारा होती है न कि केवल एक प्रमाण से, इसलिए उक्त तीनों प्रभाणों द्वारा जो सत्य वस्तु की प्रतिष्ठा का कारण है, उसे 'विचार' कहते हैं। सक्त विषय का समर्थन करते हुए शुक्र' विद्वान ने भी कहा है कि 'प्रत्यक्षदर्शी, दार्शनिक व शारूयेस्ता प्रामाणिक पुरुषों द्वारा किया हुआ घिधार प्रतिष्टित ( सत्य व मान्य ) होता है, अतः प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण द्वारा किये हुए निर्णय को 'विचार' समझना चाहिए।' प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण-निर्देश व प्रवृत्ति-निवृत्ति के विषय में प्रस्तुत नीतिकार आचार्यश्री ने कहा है कि 'चनु-आदि इन्द्रियों द्वारा स्वयं देखने घ जानने को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं।' बुद्धिमान् विचारकों को हितकारक पदार्थों में प्रवृत्ति और अहितकारक पदार्थों से निवृत्ति केवल ज्ञानमात्र से नहीं करनी चाहिए। उदाहरणार्थ- जैसे किसी पुरुष ने मृगतृष्णा ( सूर्य-रश्मियों से व्याप्त बालुका-पुञ्ज ) में जल मान लिया, पश्चात् उसे उस भ्रान्त विचार को दूर करने के हेतु अनुमान ( युक्ति प्रमाण से यथार्थ निर्णय करना चाहिए कि क्या मरस्थल में प्रीष्म ऋतु में जल होसकता है ? अपि तु नहीं होसफता। तदनन्तर उसे किसी विश्वासी पुरुष से ऍलना चाहिए कि क्या यहाँ जल है? इसके बाद जब वह मनाई करे तब वहाँ से निवृत्त होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि विचारक व्यक्ति सिर्फ ज्ञानमात्र से किसी भी पदार्थ में प्रवृत्ति व निवृत्ति न करे । उक्त विषय का समर्थन करते हुए नीदिवेत्ता गुरु विद्वान् ने लिखा है कि १, तथा च सोमदेवमूरिः-मार्थिचार्य किमपि कार्य कुर्यात् । २. तथा नजमिनि:-अपि स्वल्पतरं कार्य नामिधार्य समाचरेत् 1 यदीच्छेत् सर्वलोकस्य शंसा राजा विशेषतः ॥1॥ ३. तथा च सोमदेषमूरि:- प्रत्यक्षाभूमानागमैर्यपावस्थितयस्तुव्यवस्थापनहेतुर्विचारः ॥ १॥ ४. तथा च शुक्र:-रष्टानुमानागमशैयो विचारः प्रतिष्टितः । स विचारोऽपि विशेषत्रिभिरेतैदच यः कृतः ॥१॥ ५. तथा च सोमदेवरि:--स्वयं रष्ट प्रत्यक्षम् ॥१॥ न ज्ञानमात्रात् प्रेक्षास्तो प्रवृत्तिर्नितिर्वा ॥२॥ ६. सभा च गुरुः-एमात्राम कर्तव्यं गमनं वा निवर्तनम् । भनुमानेन नो यावदिष्टवाक्येन भाषितम् ॥१॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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