SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'बुद्धिमान पुरुष को सिर्फ देखने मात्र से किसी पदार्थ में प्रवृत्ति या। उससे निवृत्ति नहीं करनी चाहिए जब तक कि उसने अनुमान व विश्वासी शिष्ट पुरुषों द्वारा वस्तु का यथार्थ निर्णय न करलिया हो ।' उक्त विषय में आचार्यश्री ने कहा है कि 'क्योंकि जब स्वयं प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थ में बुद्धि को मोह ( अज्ञान, संशय व श्रम) होजाता है तब क्या दूसरों के द्वारा कद्दे हुए पदार्थ में अज्ञान आदि नहीं होते ? अपितु अवश्य होते हैं ||१|| गुरु विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय समझना चाहिए । २८२ विचारज्ञ का लक्षण और बिना विचारे कार्य करने से हानि-आदि का निरूपण करते हुए नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्रीः लिखते हैं कि 'जो मनुष्य प्रत्यक्ष द्वारा जानी हुई भी यस्तु की अच्छी तरह परीक्षा (संशय, भ्रम व अज्ञान-रहित निश्चय) करता है, उसे विचारज्ञ - विचारशास्त्र का वेत्ता - कहा है। ऋषिपुत्रक विद्वान् के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है । विना विचारे - अत्यन्त उतावली से किये हुए कार्य लोक में कौन से अर्थ - हानि ( इष्ट प्रयोजन की व्हति ) उत्पन्न नई करते अपितु के अनर्थ उत्पन्न करते हैं । 1 भागुरि विद्वान ने भी कहा है कि 'विद्वान् पुरुष को सार्थक व निरर्थक कार्य करने के अवसर पर स से पहिले उसका परिणाम - फल-प्रयत्नपूर्वक निश्चय करना चाहिए। क्योंकि बिना विचारे अत्यन्त उतावली से किये हुए कार्यों का फल चारों ओर से विपत्ति देनेवाला होता है, इसलिए वह उस प्रकार हृदय को सन्तापित (दुःखित) करता है जिसप्रकार हृदय में चुभा हुआ कीला सन्तापित करता है ।' जो मनुष्य बिना विचारे उतावली में आकर कार्य कर बैठता है और बाद में उसका प्रतीकार ( इलाज -- अनर्थ दूर करने का उपाय ) करता है, उसका वह प्रतीकार जल प्रवाह के निकल जानेपर पश्चात् उसे रोकने के लिए पुल या बन्धान बाँधने के सदृश निरर्थक होता है, इसलिए नैतिक पुरुष को समस्त कार्य विचार पूर्वक करना चाहिए । शुकः विद्वान के उद्धरण द्वारा भी उक्त बात का समर्थन होता है। प्रकरण में 'शङ्खनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! जिसप्रकार अन्धे के सामने रक्खा हुआ दूध बिलाव पी लेते हैं उसीप्रकार गुप्तचर व विचाररूप नेत्रों से हीन हुए राजा का राज्य भी मन्त्रीरूप बिलाव हड़प कर जाते हैं, अतः आपको उक्त दोनों नेों से अलङ्कृत होना चाहिए ॥ ६७४ ॥ १. तभी च सोमदेव भूरि-यं पतित शेते विपर्यस्यति वा किं पुनर्न परोपदिष्टै वस्तुनि ॥३१॥ -- २. तथा च गुरु कोदो वा यो बाथ दृष्टश्रुतविपचः । यतः संजायते तस्मात् तामेकां न विभावयेत् ॥१॥ ३. तथा च सोमदेवसि बलु विचारशी यः प्रणमपि साधु परीक्ष्यानुतिष्ठति ॥ १ ॥ ४. तथा च ऋषिकः विचारशः स विशेया स्वयं टेप वस्तुनि । तावणां निश्वयं कुर्यादयावनो साधु दीक्षितम् ॥१॥ ५. तथा च सोमदेव :- अतिरभसार कृताने कार्याणि किं नामानर्थ न जनयन्ति ॥१॥ ६. तथा भारीपन विगुवाकुल कार्यमादी परिपादरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । अतिरमरुतानां कर्मणामाविर्भवति हृदयदाही शभ्यः ॥१॥ ७. तथा च सोमदेवभूरिः अविचार्य कृते कर्मणि पदचात् प्रतिषिधानं गतोदके सेतुबन्धनमिव ॥१॥ ८, त्था च शुक्रः – सर्वेपा कार्याण यो विधानं न चिन्तयेत् । पूर्व पश्वा भवेथं तु यथादके ॥१॥ नीतिवाक्यामृत ( भा. डॉ. समेत ) पृ. २३७ ( विचार समुद्द ेश) से संकलित - सम्पादक - ९. रूप उपमालङ्कार । -
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy