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________________ तृतीय आवास: कविकुसुमायुधस्य यदि त हृदयं समयं विस्वप्नेऽपि मा स्म सेविष्ठाः । सचित्रजितं युवतिजिवं#सनिजि सवितं च राजानम् ।। १५३ ॥ उपलः सचिवैषु तरेधिधित मन्दरः प्रचरेत् । इसि संभवति कदाचिन्नास्वभाषः पुनः सचिवः ॥ १६४॥ विषमकरः शिशिरः स्यादभिधोञ्चपहः खर्राशुरमृतांशुः । सर्पश्वा विषइप न तु मैत्रीस्पो नियोगस्थः ॥ १२५ ॥ खाण्ड इवाभाण्डे पाण्डित्यक्रीडितस्य नरनाये। किं विदधातु सुधीर पहिरीद्वारे ऽपि ॥ १६६ ॥ सुजनजीवितस्य विश्वस्तं महिमास्तं सुजन विजनं कुलीनमसुद्दीनम् । गुणिनं -- हुकमिनं कुर्यादिति सचिवसिद्धान्तः ॥ १६७ ॥ हे राजन् ! अब आप 'कविकुसुमायुध' नाम के कवि की काव्यकला श्रवण कीजिएविद्वन् ! यदि तुम्हारा मन न्याय युक्त है तो ऐसे राजा को रखमावस्था में भी सेवन मत कीजिए, फिर जागृत अवस्था में सेवन करना तो दूर ही है, जो कि दुष्ट मन्त्री के अधीन होता हुआ परखी लम्पट है, जो तलवार धारण करनेवाले वीर पुरुषों द्वारा जीता गया है, अर्थात्-कायर है अथवा पाठान्तर में विटों ( व्यभिचारियों) के वशवर्ती हुआ चुगलखोरों के अधीन रहता है' ॥ ९५३ ॥ यदि एक बार पापाए जल में तैरने लगे व समुद्र तैरा जासके और सुमेरु पर्वत भी चलने लगे । अर्थात् यदि उक्त तीनों अघटित ( न घटनेवाली ) घटनाएँ कभी घट सकती हैं फिर भी राज मंत्री कभी भी सझन प्रकृति-युक्त नहीं हो सकता । अर्थात् दुष्ट प्रकृतिवाला ही होता है * ॥ १५४ ॥ यदि कभी अम शीतल छोजावे, वायु स्थिर होजावे और तीक्ष्ण किरणबाला सूर्य शीतल किरणवाला होजाय एवं सर्प विष दर्प से शून्य होजाय । अर्थात् उक्त अनहोनी तीनों बातें कदाचित् एक बार होजाय परन्तु राजमन्त्री मित्रता करने में तत्पर नहीं हो सकता ॥ १५५ ॥ इस संसार में विद्वान पुरुष ऐसे राजा के विषय में क्या कर सकता है ? अपितु कुछ भी सुधार आदि ) नहीं कर सकता, जो ( राजा ) इस्त, पाद व मुख आदि बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीर का धारक होने पर भी पाण्डित्य कीड़ित (विद्वानों का विद्याविनोद) का उसप्रकार अपात्र है जिसप्रकार अपने वृद्धिंगत अण्डकोशों को बाहिर निकालनेवाला ( नपुंसक ) पुरुष उक्त बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीर का धारक होने पर भी पाण्डित्य क्रीडित ( कामशास्त्रोक्त स्त्रीसंभोग ) का अपात्र होता है । भाषार्य -- जिसप्रकार नपुंसक पुरुष स्थूल शरीरवाला ( मोटा ताजा ) होने पर भी श्री के साथ रति विलास करने में समर्थ नहीं होता, इसलिए जिसप्रकार विद्वान पुरुष (वैध) उसका कुछ सुधार नहीं कर सकता प्रकार जो राजा हस्तव आदि की बाह्य चेष्टाओं से स्थूल शरीरवाला होनेपर भी राजनीति विद्या की कीड़ा से शून्य ( मूर्ख) है, उसे विद्वान पुरुष किसप्रकार सुधार सकता है ? अपि तु नहीं सुधार सकता" ।। १५६ ॥ २७५ हे राजन् ! अब आप 'सुजनजीवित, + नाम के महाकषि की इन्दरचना सुनिए मन्त्रियों का सिद्धान्त ( निश्चित विचार ) विश्वस्त पुरुष को मद्दत्वाद्दीन, सञ्च्चन को कुटुम्ब शून्य और कुलीन पुरुष को प्राणों से रहित एवं विद्वान् को दुःखों से स्वन-युक्त करता है" ॥ १५७ ॥ * 'विजितं (विजित) प० । ↑ 'दुःकणित' क० । + प्रस्तुत शाखकार का कल्पित नाम । + प्रस्तुत सामकर्ता आचार्यश्री का नाम १. समुच्चयालंकार । १. दीपकालंकार । ३. समुच्चयालंकार । । ४. आपालंकार १ ५. दीपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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