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यशस्तिकचम्पूकाव्ये मन्त्रापसरे समरे विधुरे पारेषु षस्तुसारेषु । यो न व्यभिधरखि नुपे स क हुन थल्लभस्तस्य ॥१९॥ अन्याधिदुर्वलस्य- धाराम्धी सलिलस्य दुर्जनकने विद्याविनोदस्य च । शुढे संभ्रममाणितस्य कृपणे लक्ष्मीविलासस्य छ । भूपे दुःसचिवागमस्य सुखने दारिवयसङ्गस्थ वसा स्यादधिरेण यत्र दिवसे चिन्तयन्तुलः ॥११॥ प्रयदतिथिषिपस्मिन्विष्टपे सष्टिरेषण सुरक्षितरुमणीनामथितार्थप्रधानाम् । इदमणकमिहे मे याङ्गस्वतः कसविषयशवृत्ति पविश्व द्वितीयम् ॥१५२॥
जो मन्त्री मन्त्र ( राजनैतिक सलाह ) के अवसर पर कर्तव्य-च्युत नहीं होता, शत्रु से युद्ध करने से । विमुख नहीं होता, संकट पड़ने पर पीछे नहीं हटवा । अर्थात्-संकट (विपत्ति ) के समय अपने स्वामी की सहायता करता है एवं त्रियों के साथ व्यभिचार नहीं करता। अर्थात्-दूसरे की स्त्रियों के प्रति माँ, बहिन
और बेटी की वर्ताव करता है तथा धन व रक्षादि लक्ष्मी का अपहरण नहीं करता, वह मन्त्री राजा का प्रेमपात्र क्यों नहीं है? अपितु अवश्य है' ॥१५२।।
हे राजन् ! अब आप 'भब्याधिदुईल' ( शारीरिक रोग न होनेपर भी सामाजिक दुर्गुणों के कारण अपनी शारीरिक दुर्बलता निर्देश करनेवाला ) नाम के कवि की निम्नप्रकार काव्यकला श्रवण कीजिए
हे राजन् ! मैं उस [उन्नतिशील ] दिन की प्रतीक्षा ( वाट देखना) करता हुआ, दुर्पक्ष होरहा हूँ, जिस दिन निम्नलिखित वस्तुएँ शीघ्र नष्ट होगी। १. जिस दिन लवण समुद्र में भरे हुए खारे पानी का शीघ्र ध्वंस होगा। २. जिस दिन दुष्ट लोक में विद्या के साथ विनोद ( क्रीड़ा) करने का शीघ्र नाश होगा। ३. जिस दिन क्षुद्र (असहनशील ) पुरुष के प्रति वेग-पूर्षक उतावली से विना विचारे कई हुए वचनों का ध्वंस होगा। ४. जिस दिन कृपण ( कंजूस ) के पास स्थित हुई लक्ष्मी के विस्तार (विशेष धन ) का नाश होगा और ५. जिस दिन, राजा के पास दुष्ट मन्त्री का श्रागमन नष्ट होगा एवं ६. सजन पुरुष में दरिद्रता का सङ्गम नष्ट होगा। भावार्थ-जिस समय उक्त वस्तुएँ शीघ्र नष्ट होगी, उसी समय मेरी दुर्बलता दूर होगी अन्यथा नहीं क्योंकि समुद्र का खारा पानी, दुष्ट पुरुष की विद्वत्ता, क्षुद्र के प्रति विना विचारे उतावली-पूर्वक कहे हुए धचन और कृपण का धन तथा सज्जन पुरुष में दरिद्रता का होना तथा राजा के पास दुष्ट मन्त्री का होना ये सब चीजें हानिकारक और निरर्थक है, इसलिए इनका शीघ्र प्रलय-नाश-होना ही मेरी दुर्बलता दूर करने में हेतु है, अतः कषि कहता है कि जिस दिन उक्त हानिकारक चीजों का ध्वस होगा, उस दिन की प्रतीक्षा करने के कारण मैं कमजोर होगा हूँ ॥ १५१॥ इस संसार में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला एक मानसिक दुःस मेरी शारीरिफ कुशवान कारण है। १. क्योंकि याचक-हीन इस संसार ( स्वर्गलोक ) में अभिलषित ( मनचाही) धनादि वस्तु देनेवाली कामधेनु, कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत्नों की सृष्टि (रचना) पाई जाती है। २. मानसिक दुःख मेरे शरीर को कृश (दुर्बल) करने का कारण यह है कि इस संसार में ऐसा राजा पाया जाता है, जिसकी जीविका दुष्ट मन्त्री के अधीन है। भावार्थ-स्वर्गलोक में, जहाँपर याचकों का सर्वथा अभाव है, मनचाही वस्तु देनेवाली अनावश्यक कामधेनु-बादि वस्तुएँ पाई जाती है, यह पहला दुःख मेरी शारीरिक दुर्बलता का कारण है और दूसरा दुःख दुष्ट मन्त्री के अधीन रहनेवाला राजा मेरे दुःख का कारण है, क्योंकि उससे प्रजा का विनाश अवश्यम्भावी होता है। ॥ १५२॥
अयं शुद्धपाः ह. लि. क. स. प. च० प्रतिभ्यः संकलिता, मु. प्रती तु 'यदतिथिविषये' इति पाठः । १. आक्षेपालद्वार। *'प्रस्तुत शानकर्ता का कल्पित नाम । १. समुच्चयालंकार। 1. व-अक्षधार ।