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तृतीय पाश्वासः
३५६ अलकेक्षणपश्नकुरुन्मान्त्याः क्रमेण कान्तायाः । अम्बालकुवलयाम्बुबपुलिमश्रियमाश्रिता सिन्धुः ॥३८१॥ अहनि परिणता नाथ सीमनिसनीना पुरुषरतनियोगव्यमकाजीगुणानाम् । शिथिलयति कपोले मण्डनं स्वेदषिन्दुर्निविचकुचनिकक्षात्स्यन्दते पारिपूरः ॥३८६॥ उद्देशन्ति कपोलपालिघु कुचरतम्येषु मन्दास्पदा स्फायन्ते वलिवाहिनीषु यत्रो नाभीवरश्रेगिषु । ग्रीष्मेऽपि स्मरके लिहासधियां सीणां श्रमाम्माकणाः ख्यान्ति प्रावृष पुन संपदम्मी नीचीलसोशासिनः ॥३८॥ मन्दानिकेषु कहकीदलमण्डपेषु हारेषु यन्त्र गृहोलिपु वन्दनेषु । बन्दस्यहाननु दुनोसि कथं स कारः कान्तारर चापितपयोधरमालामु ॥३८८॥
इति वैतालिकालापीछास्यमानमानसः सकललोकलोचनापूर्णनेषु धर्मदिनेषु मदिरासमागमानिव मध्याहस्मयानतिवाहयामास ।
अकुर्वन् मनमः प्रीति यः स्त्रीषु विहिसादरः । अन्याथ भारवोदय म परं क्लेशभाजाः ॥३८९॥
पति की दृष्टिरूपी नदी उसके जल से बाहिर निकलती हुई स्त्री के केश, नेत्र, मुख व कुचों (स्तनों) से क्रमशः जम्बाल (काई), कुवलय (कुमुद-चन्द्रविकासी कमल), कमल और पुलिन (वालुकामय-रेतीलाप्रदेश) की शोभा बसावा) को मात हुई। अभिनाय यद है कि पति की दृष्टिरूप नदी में सी के केशपाश शेवाल सदृश, नेत्र कुमुदु-जैसे और मुख कमल-सरीखा एवं कुच (स्तन) रेतीले प्रदेश-सीखे थे, अत: वह ( पति की दृष्टिरूपी नदी ) स्त्री के केश, नेत्र, मुम्ब व कुचों ( स्तनों) से क्रमशः शैवाल, कुमुद, कमल और वालुकामय प्रदेश की शोभा ( सदशता) धारण कर रही है। ॥३८॥ हे राजन् ! प्रीष्मऋतु के दिन की मध्याहुवेला में उत्पन्न हुआ स्वेद-बिन्दु विपरीत मैथुन के व्यापार में व्याकुलित करधोनीवाली स्त्रियों के गालों पर की गई पत्त्ररचना केसर व कस्तूरी-आदि सुगन्धि पदार्थों से की हुई चित्ररचना) शिथिल कर रहा है और परस्पर में सटे हुए कुचों (स्तनों ) के निकुञ्ज ( लता-पान्छादित प्रदेश ) से जल-प्रवाह क्षरण होरहा है ॥३८॥ हे राजन् ! कामक्रीड़ा में अत्यन्त उत्कण्ठित बुद्धिवाली स्त्रियों के कामसेवन के परिश्रम से उत्पन्न हुए ये ( प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले ) ऐसे जलकण ( स्वेद-बिन्दु) ग्रीष्मऋतु में भी वर्षा ऋतु की शोभा सूचित कर रहे हैं, जो ( जलकण ) कपोलपालियों ( गालस्थलीरूपी पुलों अथवा गालस्थलियों) पर उछल रहे हैं। जो कुचरूपी तनों या शाखाओं से मन्द-मन्द हरणशील है। जो त्रिवली ( उदररेखा) रूपी नदियों में वृद्धिगत होरहे हैं। जो नाभि के छिद्र-समूहों में विस्तृत होते हुए नीवी (कमर के वक्ष की गाँठ) रूपी लता को उल्लसित कर रहे है ||३८७॥ हे राजन् ! जब कि मन्द-मन्द वायु संचार कर रही है, जब केलों के पत्तों के गृह यतमान हैं, जब मोतियों की मालाएँ विद्यमान है । वक्षःस्थल पर धारण की जारही है, जब फुचारों के गृहों में क्रीड़ाएँ होरही है, जब तरल चन्दनों का लेप होरहा है और कुछ (स्तन ) कलश-मण्डल अर्पित (स्थापित ) करनेवाली ( कुच-कलशो द्वारा गाद आलिङ्गन देनेवाली) कमनीय कामिनियों वर्तमान हैं तब आश्चर्य है कि यह ग्रीष्म ऋतु काम की आकाङ्क्षा करनेवाले पुरुषों को किसप्रकार सन्तापित कर सकती है ? अपि तु नहीं कर सकती ||३८।। स्त्रियों के साथ हार्दिक प्रेम पादर न करनेवाला पुरुष उसप्रकार केवल कष्ट-पात्र होता है जिसप्रकार दूसरों के निमित्त भारवाहक मानव केवल कष्ट-पात्र होता है." ॥३८९॥
'पूर्णनेषु' कः । १. यथासंख्य-अलकार । २. शृगाररस-प्रधान रूपकालकार । ३. रूपक व उपमालंकार। ___. समुच्चयालंकार । ५. अपमालंकार ।