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________________ ३४९ यशस्तिलकदम्पूकाव्ये पवामप्रार्य रूक्षप्रायं च भोजनं कुर्यात् । मरिज़म्भकाले गुरु शीतं घाटु र स्पान्यम् ॥ ३६३ ॥ कलमसदकमन मुगभूपः ससपिबिलकिसलयकन्दा: सनवः पानकानि । क्षितिरमण रसाला नाक्तिकरीफलाम्भस्तपदिवसनिषेत्र्यं शर्करा यश्च ॥ ३५३ ॥ परिशुष्क लघु स्निग्धमुष्णं पावृषि भोजनम् । पुराणशालिगोएमयवसायं समाचरेत् ॥ ३५ ॥ कृप्तं मुद्गः शालिः समिधविकृतिः क्षीरविधयः पटोल मुडीकाः फलमिह स पाश्याः समुचितम् । सिता शोसच्चाया मधुरसका कन्दपलं शरकाले सेव्यं स्वनिवदने पद्धकिरणाः ॥ ३६६ ॥ न्यूनाधिकविभागेन रसानृषु योजनेन् । पड्याभ्यवहारस्तु सदा नृणां सुखावहः ॥ ३५ ॥ वाल अन्सा कोहलं कारवलं चिल्ली जीवन्ती पास्नुलस्तण्डलीयः। सद्य: सा; रिचयातi in समासे - स्कावरचाकस्य ॥ ३८७ ॥ तुर्येगांगेन भोज्यस्य सर्वशाकं समाचरेत् । दना परिचत नायाहिशुष्कं पयसा म प ॥ ३५८ ॥ उड़द व पिठी-आदि ), ठंडी चीजें ( शक्कर-आदि ) और स्वादिष्ट (मिष्टान) को छोड़ते हुए अधिक करके जौ और गेहूँ का तथा अल्प घृतवाला भोजन स्वाना चाहिए ।।३५२।। हे पृथिवीपति ! प्रीष्मऋतु (ज्यप व आषाढ ) में सुगन्धि चॉबलों का भात, घी-सहित मूंग की दाल, कमल-नाल का तन्तु, मीठी कंपलें, सतुआ ब 'आम्र खाना चाहिए गवं पानक ( शरयत-आदि पीने योग्य), नारियल का पानी और शाबर डालकर दूध पीना चाहिये ।।२५३।। वर्षा ऋतु ( श्रावण ष भादों) में परिशुष्क (भली-भौति पकाए हुए दूध की मलाई-आदि स्वादिष्ट पदार्थ :, हल्का ( चाँवलों का भात-श्रादि), घी-आदि सचिस्कए वस्तु गरम एवं अधिक करके पुराना धान, गहूँ और जी का बना हुआ भोजन (क्रमशः चावलों का भात, पकी हुई गेहूँ के आटे की रोटी और जी का भात) खाना चाहिए ||३५४|| शरदऋतु ( आश्विन व कातिक ) में घी, मूंग: सुगन्धि चाँवलों का भात, गेहूँ के आटे की लप्सी, खीर, पटील ( व्यअनविशेष अथवा परखलो, मुनक्कादाख, पावला, शक्कर मीठे पिरडालू-कन्द और मीठी कोपलें खानी चाहिए । इसीप्रकार प्राम वगैरह वृक्षों की छाया व पूर्व रात्रि में चन्द्र-किरणों का सेवन करना चाहिए ॥३५५।। वसन्त-आदि छहों ऋतुओं में अल्प व प्रचुरमात्रा का विभाग करके रस-भक्षण की योजना करनी चाहिए। उदाहरणार्थ-प्रीष्मऋतु में उगरस, सोंठ मिर्च व पापल-आदि । अल्पमात्रा में और शीतरस ( दही-आदि रस ) अधिकमात्रा में खाना चाहिए और शीतकाल में शीतरस अल्प और उष्णरस अधिक खाना चाहिए इत्यादि । इसके विरुद्ध सर्वथा छोड़ना चाहिए। छहॉरसा वाला भोजन मनुष्यों को सदा सुखदायक है" ॥३५क्षा अथानन्तर उक्त 'सजन नाम का वैद्य यशेधर महाराज के प्रांत समस्त ऋतुओं में सेवन करने योग्य शाको-आदि का निरूपण करता है : ह राजन् ! कोमल व ताजा बैंगन, पक्व कुम्हड़ा व करैला इन फलों की शाक और पोई, जीवन्ती । कररुआ ।, बथुए का भाजाव चोलाइ का भाजा का शक एवं ककड़ा खानी चाहिए तथा उसी समय अग्नि में पकाए हुए उड़द का दाल के पापड़ खान चाहिए। इसीप्रकार भोजन के अवसर पर अदरक के टको खाय जाव ता स्वर्गलाकों से क्या लाभ है? अपि तु कोई लाभ नहीं। अर्थात्-अदरक का भक्षण जठराग्नि को उद्दीपित करता है।॥ ३५॥ जितना भोजन किया जाता है, उसक चौथाई भाग 'स्वादु क.। 'वालं घातांक काल कारवलं चिली जाषन्ता यात्रुफरदडलाय . 'पालं पाकि स. ग. प.। ४ "चिभिटान्ताः' ० । +'पालयवादकस्य क०। १. समुच्चयालंकार । २. समुच्चयालंकार। ३. समुचनालंकार । ४. समुच्चयालंकार। ५. जानि-अलंकार। ६. आक्षेप व समुच्चयालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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