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________________ तृतीय भास्थासः आपो स्वाद स्निा गुरु मध्ये सरगमलमुपसेव्यम् । सशं च पश्चान्न १ भुक्त्वा भक्षयत्किंचित् ।।३४४॥ मन्दस्तीक्ष्णो विषम: समश्च वहिरातर्विधः पुंसाम् । धुमन्दे गुरु तीक्ष्णे सिध विषसेसम समे चाचात् ॥३४८॥ शिशिरसुरमिधर्मेधावपाम्मरस्म क्षितिप जसारखेमन्तकाळेपु चैते। कफपवनहुताशाः संचयं च प्रकोपं प्रशसमिह मबस्ते जन्ममाजां क्रमेण ।। ३४५ ॥ तदिह पारदि सेव्यं स्वातु सिक्त फषार्थ मधुरवणमम्मे नौरनीहारकाले । नृपवर मधुमासे वीक्ष्णसिक कार्य प्रशमरम्मथानं मीधमकालागमे च ॥ ३५० ॥ ममशनमिहायात क्षीरमाषेचभक्ष्यान्दधि व घृतविकारांस्लमप्यत्र पथ्यम् । निधि व शिशिरफाळे पीनवक्षोजभाजो विपुलबहकाया सेवनीयाः पुरंध्यः ॥ ३१ ॥ और आयु-रक्षक भोजन करना चाहिए' ॥३४६॥ भोजन के अवसर पर पहिले स्वादिष्ट ( लड्डू-श्रादि ) व धृत-मिश्रित सचिक्कण पदार्थ खावे। मध्य में भारी पदार्थ रथं खारा व खट्टा रस खावे तथा अन्त में रूक्ष घ तरलपदार्थ (महा-वगैरह ) सेवन करना चाहिए परन्तु भोजन करने के पश्चान् कुछ भी नहीं खाना चाहिए ॥३४७६ जठराग्नि (उदराग्नि ) के चार भेद हैं। १. मन्द, २. तीक्ष्ण, ३. विषम और ४. समाग्नि । १. मन्दाग्नि-कफ की अधिकता से और दूसरी तीक्ष्ण अग्नि-पित्त की अधिकता से एवं ३. विषमाग्नि-वात की अधिकता से वथा ४. समाग्नि-कफ, पिप्स व यात की समता से होती है। इनमें से मन्दाग्निषाले को हल्का भोजन करना चाहिए, तीक्ष्ण अग्निवाला भारी भोजन करे एवं विषमाग्निवाला सचिक्कण अन्न खावे तथा समाग्नि में सम अन्न खावे ॥३४॥ हे राजन् ! इस संसार में प्राणियों के कफ, वात और पित्त शिशिरऋतु (माघ व फाल्गुन दो माह), वसन्त ( चैत्र व बैसाख) और भीष्मऋतु (ज्येष्ठ व आषाढ़ ) मैं तथा भीष्मऋतु, वर्षाऋतु (आवण व भाद्रपद) और शरदऋतु (धाश्विन व कातिक) में, एवं वर्षाऋतु, शरदऋतु व हेमन्तवत (अगइन 4 पौषमाइ) में क्रमशः संचय, प्रकोप और शमन को प्राप्त करते हैं। अर्थात्-शिशिरत में प्राणियों का कफ संचित होता है और वसन्तऋतु में कफ कुपित होता है तथा ग्रीष्मऋतु में कफ शान्त होता है। इसीप्रकार प्रीष्मऋतु में वायु का संचय होता है और वर्षाऋतु में वायु का प्रकोप होता है एवं शरद ऋतु में वायु का शमन होजाता है। एवं वर्षाऋतु में पित्त संचित होता है, शरदऋरत में पिस कुपित होता है और हेमन्त ऋतु में पित्त का शमन होता है।३४६।। हे राजाधिराज! अतः इस शरद ऋतु (आश्विन व कार्तिक मास ) में मिष्टान्न सेवन करते हुए तिक्ष (कढुवा या पिरपिरा) व कषायले रस का सेवन करना चाहिए । हेमन्त ऋतु (अगहन व पौष माह) में मधुर, खारा व खट्टे रस का सेवन करना चाहिए। इसीप्रकार वसन्तऋतु (चैत्र व पैसाख ) में तीचरण, तिक्त व कषायला रस खाना चाहिए और प्रीष्मऋतु (ज्ये व भाषाढ़) में मिष्टान्न सेवन करना चाहिए ||३५०॥ शिशिरऋतु (माघ व फाल्गुन) में ताजा भोजन, दूध, उडव, गन्ना, लघु-आदि भक्ष्य, दही घ घी से बने हुए व्यअन खाने चाहिए। इस तु में तैल भी पथ्य-हितकारक है एवं इसमें रात्रि में स्थूल कुच (स्तन) कलशोवाली स्थूल शरीरवाली त्रियों को सेवन करना चाहिये ॥३५।। हे राजन! वसन्तऋतु (चैत्र व बैसाख) में भारी (स्वभाव से भारी * 'प्रममरसमथा' का । १. समुच्चयालंकार। तथा चोक-भुक्त्वा यत्प्रार्थ्यते भूयस्तवुर्फ स्वादु भोजनम् ॥१॥ अर्थात जो पदार्थ खाकर पुन: माँगा जाय, उसे स्वादिष्ट कहते हैं। .. समुच्चयालंकार । ३. दीपकालंकार 1 v. यथासंख्य अलंकार। ५. समुच्चयालंकार । ६. समुच्चयालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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