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________________ ३४६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये I बिरrयेते कोरस्य लोचने विषदर्शनात् । गतौ स्खलति सोऽपि छीयन्तेऽनेन मक्षिकाः ॥ ३४८ ॥ या लवगसंपत्स्फुटं स्फुटति पावकः । विषष्यान्न संपर्क तथा वसुमतीपते ॥३४६॥ पुनहमीकृतं स्यान्यं सर्वं वरन्यं विरूयकम् । दशशत्रोषित नाथासे च निहितं घृतम् ॥ ३४२ ॥ किसी लवणेन शकुलिः कलिना गुडपिप्पलिममरिचैः सार्द्धं सेव्या =न काकमाची च ||३४३॥ भुञ्जीत मापं सूकसहितं न जातु हितकामः । भिवसनाद्यानि निखिलं तिछविकारं च ।। ३४४ ॥ ऋते बृद्धाम्बुभक्ष्येभ्यः सर्व पर्युषितं स्वजेत्। देशकीटकसंसृशं । पुनार च वर्जयेत् ॥ ३४५॥ अत्यानं ध्यानं समशनमध्यानमंत्र संत्याज्यम् । कुर्याद्यथोक्तमशनं बलजीवितपेश क्रमश: ॥ ३४६ ॥ 1 लगते हैं। नौला व मोर आनन्दित होता है। क्रौंच पक्षी नींद लेने लगता है, कुक्कुट ( मुर्गा ) रोने लगता है, तोता वमन कर देता है, बन्दर मल त्याग कर देता है, चकोर पक्षी के नेत्र लाल होजाते हैं तथा इस का गमन स्खलित होता है ( सुन्दर गमन नहीं करता ) एवं विषैले अन्न पर मक्खियाँ नहीं बैठती' ।। ३३९ - ३४ ।। युग्मम् || हे पृथिवीपति ! विष-दूषित अन्न के संसर्ग से अग्नि उसप्रकार स्पष्ट रूप से बटपटाने लगती है. जिसप्रकार नमक डालने से चटचटाती है" ।। ३४१ ॥ अथानन्तर उक्त वैध प्रस्तुत यशोधर महाराज के प्रति न खाने योग्य व खाने योग्य पदार्थों का विवेचन करता है - हे राजम् ! स्वास्थ्य-रक्षा हेतु फिर से गरम किया हुआ समस्त दाल-भात- श्रादि अन्न, अङ्कुरित धान्य और दश दिन तक काँस में रक्खा हुआ भी नहीं खाना चाहिए || ३४२ || स्वास्थ्यरक्षा के निर्मित केले को दही, छाँच व दही छाँच के साथ न खावे और दूध में नमक डालकर न पिए एवं काञ्जी के साथ शष्कुलि ( पूड़ी ) नहीं खात्रे तथा काकमाची या पाठान्तर में कावमारी ( शाक विशेष ) गुरु, पीपल, मधु व मिर्च इन चार चीजों के साथ न खावे ||३४३ || अपना हित चाहनेवाले मनुष्य को उड़द की दाल मूली के साथ कदापि नहीं खानी चाहिए और दही के समान पिण्डरूप से बँधे हुए, सन्तुए नहीं स्वाना चाहिए किन्तु जल द्वारा शिथिलित सत्तुआ खाना चाहिए । अर्थात् - सुश्रुत " में लिखे अनुसार सत्तुओं का अवलेह -सा बनाकर खाना चाहिए, क्योंकि अवलेह नरम होने से शीघ्र पच जाता है । इस प्रकार रात्रि में समस्त प्रकार के तेल से बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिए' ||३४४ || हितैषी पुरुष भी, पानी व लड्डू आदि पकवानों को छोड़कर बाकी सभी खानेयोग्य पदार्थ ( रोटी व बाल-भात- आदि व्यञ्जन ) रात्रि के रक्खे हुए न खाय । अर्थात्-रात्रि के रक्खे हुए घी, पानी व लड्डू- आदि पकवान खाने में दोष नहीं है, अतः इन्हें छोड़कर बाकी रोटी आदि खानेयोग्य पदार्थ रात्रि के रक्खे हुए न खाय । इसीप्रकार केश व कीड़ों से व्याप्त हुआ अन्न न खाय । अर्थात् जिस दाल-भात आदि अन्न में बाल निकल आये उसे न स्वाय और जिसमें कीड़ा निकल आवे उसे भी न खाय एवं फिर से गरम किया हुआ अन्न न खाये ॥ ३४५॥ भूँख से अधिक खाना, भूख से कम खाना, पध्य व अपथ्य खाना, अध्यशन ( भूख के अनुकूल भोजन कर लेने पर भी फिर से भोजन करना अथवा पेट में अजीर्ण होने पर खाना ) इन सबको छोड़ देना चाहिए। भोजनविधि में क्रमश: अग्नि, काल व अवस्था के अनुकूल बलकारक पाठ: । S 'सूर्य' ग० । = 'न काचमारी ७ क० भयं शुद्धपाः क० भ० प्रतितः समुद्धृतः सुप्रस तु 'पुनराद'' १. समुध्यालंधर । २. उपमालंकार । ३. ५ तथा च सुश्रुतः — 'खचूनाभाश्शु जीय्येंत भूवुत्यादवले हिडा प्रदीपक अलंकार। ४ दीपक अलंकार | ॥ ६. समुच्चयालंकार । भावप्रकाश ० ९६ । * या पोते यत्तु तदम्बचनमुच्यते ॥ ३५ ७. समुच्चयालंकार |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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