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तृतीय आश्वासः
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अन्ये स्वेवमाहुः : - यः कोकवशिवाकामः स नक्तं भोक्तुमर्हति । स भोका वासरे यश्च रात्रौ रन्ता चकोरवत् ।। ३३१ ॥ परे त्वेवमाहू:- नाभिपन्नसंकोचण्डशेचेरपायतः । भतो नक्तं न भोक्तव्यं वैद्यविद्याविदां वरैः ॥ ३३२ ॥ देवाच' भोजन निद्रामाकाशे न प्रकल्पयेत् । नान्धकारे न संध्यायां नाविताने निकेशने ॥ ३३३ ॥ सहभोजषु लोकेषु पुरै परिवेषयेत् । भुञ्जानस्यान्यथा पूर्वं तद्दृष्टिविक्रमः ॥ ३३४ ॥
स्वापे मलोत्सवः संबाधसमाकुलः । + निःशङ्कस्यात्ययासस्य के के न स्युर्महामयाः ॥ ३३५ ॥ here प्रतिकूल: करमनाः सामयः क्षुधाक्रान्तः । न स्थात्समीपवर्ती भोजनकाले विनिश्व ॥ ३३६ ॥ नवनिविगन्धिविरसस्थिति । अतिजीर्णमसाहम्यं च नाथावतं न चाकिलम् ॥ ३३७ ॥ दिसं परिमितं पक्वं मे नासारसाप्रियम् । परीक्षितं व भुञ्जीत न तं न विलम्बितम् ||३३८ || ध्वाङ्गः स्वरान्विकुरुतेऽत्र बिभ्रुः। कौः प्रमाद्यति विरौति च ताम्रचूडादि शुकः प्रतनुते हदत्ते कपिश्च ॥ ३३९॥
दूसरे वैद्य उक्त विषय पर इसप्रकार कहते हैं--जो पुरुष चकवाचकवी के समान दिन में कामसेवन करता है, उसे रात्रि में भोजन करना चाहिए एवं जो चकोर पक्षी के समान रात्रि में मैथुन करता है, उसे दिन में भोजन करना चाहिए। निष्कर्ष - मानव भी चकोर पक्षी जैसा रात्रि में कामसेवन करता है, अतः उसे भी दिन में भोजन करना चाहिये १ ||३३१|| कुछ वैद्य उक्त विषय पर ऐसा मानते हैंरात्रि में सूर्य अस्त होजाने के कारण मनुष्यों के हृदयकमल व नाभिकमल मुकुलित होजाते हैं, इसलिए उत्तम वैद्यों को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए ||३३२ || विवेकी पुरुष को देवपूजा, भोजन व निंद्रा ये तीनों कार्य खुले हुए शून्य स्थान पर, अँधेरे में और सायंकाल में एवं विना देवावाले गृह में नहीं करना चाहिए ||३३३|| अनेक लोगों के साथ पक्ति भोजन करनेवाले मानव को सहभोजियों के पूर्व में ही भोजन छोड़ देना चाहिए। अन्यथा ( ऐसा न करने से ) पहिले खानेवालों का दृष्टिविष ( नजररूपी जहर ) उस भोजन में प्रविष्ट होजाता है ||३३४ || भोजन, निद्रा और मल त्याग का वेग रोकनेवाले मनुष्य को भयभीत होने के फलस्वरूप कौन-कौन से महान् रोग नहीं होते ? अपितु समस्त रोग होते है ||३३५ || भोजन के समय उच्छिष्ट ( जूठन ) खानेवाला, शत्रु, हिंसक, रोगी और भूँख से पीड़ित एवं निंदनीय पुरुष निकटवर्ती ( समीप में ) नहीं होना चाहिए ||३३६६ | स्वास्थ्य के इच्छुक मानव को ऐसा अन नहीं खाना चाहिए, जो कि मलिन, अपरिपक्क ( पूर्णरुप से न पका हुआ ), सड़ा या गला हुआ, दुर्गन्धि, स्वाद रहित, घुना हुआ, अहित ( प्रकृति ऋतु के विरुद्ध होने से रोगजनक ) तथा शुद्ध है" ॥३३७॥ स्वास्थ्य का इच्छुक मानव ऐसा अन शीघ्रता न करके और विलम्ब न करके ( भोजन आरम्भ करके उसे पूर्ण करते हुए ) खावे, जो भविष्य में हितकारक ( रोग उत्पन्न न करनेवाला व पुष्टिकारक ), परिमित ( जठराग्नि के अनुकूल - परिमाण का ), अग्नि में पका हुआ, नेत्र, नासिका व जिल्हा इन्द्रिय को प्रिय और परीक्षित ( विष-रहित ) हो ||३३८ ||
अब 'सज्जन' नाम का वैद्य यशोधर महाराज के लिए पूर्व श्लोक नं० ३२८ में कहे हुए 'परीक्षित' ( विष-रवि ) पद का तीन लोकों में विस्तार करता है । अर्थात् — यह कहता है कि हे राजन् ! विषमिश्रित अन्न निम्न प्रकार के प्रमाणों ( लक्षणों) से जाना जाता है, वैसे लक्षणोंवाला अन्न कदापि नहीं खाना चाहिए - हे राजन् ! विष व विष मिश्रित अन्न के देखने से काक व कोयल विकृत शब्द करने + 'निःशरात्ययात्तस्य ग० । १ उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. दीपकालंकार । ४. रूपकालंकार | ५. आपालंकार । ६. दीपकालंकार । ५. क्रियाक्षेपालंकार । ८. क्रिया दीपक अलंकार |
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