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यशक्षिकचम्पूकाम्ये
वारायणो निशि तिमिः पुनरस्तकाले मध्ये दिनस्य धिषणश्चरकः प्रभाते ।
कि जंगा नृपते मम चैव सस्तस्याः स एव समय: क्षुधितो यदैव ॥ ३२९ ॥ मोल्लोलभावेन कुर्यादशकण्ठभोजनम्। सुप्तान्ध्यालानिय व्याधीन्सोऽनर्थाय प्रबोधयेत् ॥ ३३० ॥
के अध्ययन से प्राप्त होता है एवं उन द्वादशाङ्ग शाखों के जन्मदाता - आदिवक्ता — ऋषभदेव आदि बीस तीर्थकर हैं. अतः वे पूज्य हैं, क्योंकि सज्जनपुरुष किये हुए उपकार को नहीं भूलते ।'
इसप्रकार ईश्वर की उपासना के पश्चात् उसे अतिथियों-दान देने योग्य व्रती व साधु महात्माओं के लिए श्राहारखान देकर सन्तुष्ट करना चाहिए। क्योंकि आचार्यश्री ने लिखा है कि 'जो गृहस्थ होता हुआ ईश्वरभक्ति व साधु पुरुषोंकी सेवा ( आहारदान द्वारा संतुष्ट करना ) नहीं करके भोजन करता है, वह उत्कृष्ट अञ्जानरूप अन्धकार का भक्षण करता है' । अतः अतिथियों को संतुष्ट करना महत्वपूर्ण व अनिवार्य है । तत्पचान प्रसन्न व विशुद्धचितशाली होते हुए स्वच्छ वस्त्र धारण करके ही जनों से वेष्टित हुए एकान्त में यथासमय - -भूख लगने पर — यथाविधि भोजन करना चाहिए । नीतिकार आचार्य श्री ने लिखा है कि 'भूख लगने का समय ही भोजन का समय है'। सारांश यह है कि विवेकी पुरुष को अहिंसाधर्म व स्वास्थ्य रक्षार्थ रात्रिभोजन का त्याग कर दिन में भूख लगने पर प्रकृति व ऋतु के अनुकूल आहार करना चाहिए, बिना भूख लगे कदापि भोजन नहीं करना क्योंकि बिना भूँख के पिया हुआ अमृत भी विष होजाता है। जो मानव सदा आहार के अपनी जठराशि को बचाभि जैसी प्रदीप्त करता है, वह वज्र सरीखा शक्तिशाली होजाता है। समय उल्लङ्घन करने से अन्न में अरुचि व शरीर में कमजोरी आती है ।' अतः स्वास्थ्य-रक्षा के लगने पर ही भोजन करते हुए भूख का समय उल्लङ्घन नहीं करना चाहिए || ३२८||
चाहिए । आरम्भ में भूँख का
हेतु भूख
हे राजन् 'चारायण' नाम के वैद्य ने रात्रि में भोजन करना कहा है, 'तिमि' नाम वैद्य ने सायंकाल में भोजन करना बताया है और 'बृहस्पति' नाम के वैद्य ने मध्याह वेला - दोपहर का समय में भोजन करना कहा है एवं आयुर्वेदकार चरक ने प्रातःकाल भोजन करना बताया है परन्तु मेरा वो यह सिद्धान्त है कि जब भूख लगे तभी भोजन करना चाहिये । प्रस्तुत नीविकार आचार्य ने कहा है कि 'भूख लगने का समय ही भोजन का समय है'। अभिप्राय यह है कि अधर्म की रक्षार्थं व स्वास्थ्य-रक्षा के हेतु रात्रिभोजन का त्याग करते हुए दिन में भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए, बिना भूँख के कदापि नहीं खाना चाहिए || ३२९ || जो मानव भोजन की लम्पटता खरा बिना भूख लगे ही कण्ठतक ( अत्यधिक ) भोजन करता है, वह अपने को दुःखी बनाने के लिए सोते हुए सर्पों के समान रोगों को जगाता है। अर्थात् जिस प्रकार सोते हुए सर्पों का जगाना अनर्थकारक है उसीप्रकार भोजन की लम्पटता- यश बिना भूँख के ही अधिक खालेना भी अनर्थकारक ( अनेक रोगों को उत्पन्न करनेवाला )
है* ||३३०||
१. तया च सोमदेवपूरि : - देवपूजाम निर्माय भुमीननुपचर्य च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सम्स भुञ्जीत परं तमः ॥ १ ॥ यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ३८६ से संकलित-सम्पादक २. तथा च सोम-बुभुक्षाकालो भोजनकालः ॥१॥ अक्षुधितेनाभृतमप्युपभुक्तं च भवति विषं ॥२॥ अठराग्नि वज्राग्नि कुर्बशाहारादी सदैव वज्र वलयेन् ॥३॥ शुकालादिकमादमद्वेषो देहसादव भवति ॥ ४ ॥
३. जति अलंकार ।
नीतिवाक्यामृत ( दिवसानुष्ठामसमुद्देश २९ -- ३१ ) से संकलित -- सम्पादक तथा च सोमदेवसूरिः - गुनुक्षाकालो भोजनकालः । ५. दीपकालंकार । ६. उपमालंकार ।
४.