________________
तृतीय आश्वासः
श्रमघमर्तिदेदानामाकुलेन्द्रियचेतसाम् । तव देव द्विषां सन्तु स्नानपानादनक्रियाः ॥ ३२६ ॥ स्वयं विस्तधर्माम्बुनिवाविद्राणितश्रमः । शीतोपचार वृद् लेाजवेत्परसल वत्सलः ॥ ३२६॥ हान्यभागातपितोऽम्सेवी श्रान्तः कृताशो दमनज्वराः ।
भगन्दरी स्यन्दविन्धका 1 गुल्मी जित्सुर्विहिताशन ॥३१७॥
स्नानं विधाय विधिवत्तदेवकार्थः संसर्पितातिभिजनः सुमनाः सुवेषः ।
तो रहसि भोजन तथा स्यात्सायं यथा भवति मुक्तिकरोऽभिलाषः ॥३२८॥
२४३
और उष्ण ऋतु के दिनों में ठंडे जल से तथा शीत ऋतु में गरम जल से स्नान करना चाहिए' ।। ३२४|| हे वेष ! आपके शत्रुओं की, जिनका शरीर खेद व धूप से पीड़ित है और जिनकी इन्द्रियों और मन व्याकुक्षित है, और भोजत कियाएँ हो ॥१२॥ स्वेदजल ( पसीना ) को पंखे -आदि की वायु द्वारा स्वयं दूर करनेवाले व निद्रा द्वारा खेद को नष्ट करनेवाले मानव को शीतोपचार ( मुनकादाख व हर४ आदि से सिद्ध किये हुए औषधियों के जलविशेष ) द्वारा न कि पानी पीने द्वारा अपनी प्यास शान्त करने के पश्चात् भोजन में स्नेह ( रुचि) करनेवाला होना चाहिए भोजन करने में प्रवृत्त होना चाहिए || ३२६ ॥ धूप से पीड़ित पुरुष यदि तत्काल पानी पीलेता है तो उसकी दृष्टि मन्द पड़ जाती है और मार्ग चलने से थका हुआ यदि तत्काल भोजन कर लेता है तो उसे वमन व ज्वर होजाता है एवं मूत्रवेग को रोककर भोजन करनेवाले को भगन्दर और मल के वेग को रोककर भोजन करनेवाले को गुल्म रोग होजाता है । निष्कर्ष — इसलिए उक्त रोगों से बचने के लिए एवं स्वास्थ्य-रक्षा हेतु धूप से पीड़ित हुए को तत्काल पानी नहीं पीना चाहिए, मार्ग श्रान्त को तत्काल भोजन नहीं करना चाहिए एवं मल-मूत्र के वेग को रोककर भोजन नहीं करना चाहिए ।। ३२.५|| स्वास्थ्य-रक्षा चाहनेवाले विवेकी पुरुष को स्नान करने के पश्चात् शास्त्रोतविधि से ईश्वर भक्ति ( अभिषेक व पूजन आदि ) करके और अतिथिजनों ( दान - योग्य पात्रजनों) को सन्तुष्ट कर के अकलुषित (शुद्ध) चित्तशाली होकर सुन्दर वस्त्र पहनकर एवं हितैषी माता-पिता व गुरुजनों से वेष्टित होते हुए एकान्त में उसप्रकार से- - उतना ( भूल के अनुसार ) भोजन करना चाहिए, जिससे कि सायंकाल में उसकी भोजन करने की इच्छा प्रकट होजाय ।
विशेषार्थ — नीतिकार प्रस्तुत आचार्य" श्री ने लिखा है कि 'जो मानव देव, गुरु व धर्म की उपासना के उद्देश्य से स्नान नहीं करता, उसका स्नान पक्षियों के स्नान की तरह निष्फल है'। अतः विवेकी पुरुष को यथाविधि स्नान करने के पश्चात् ईश्वरभक्ति व शास्त्रस्वाध्याय आदि धार्मिक कार्य करना चाहिए । क्योंकि देष, गुरु व धर्म की भक्ति करनेवाला कभी भ्रान्तबुद्धि ( कर्त्तव्य मार्ग से विचलित करनेवाली बुद्धिवाला) नहीं होता । आचार्यश्री विद्यानन्द ने तस्वार्थ श्लोकवार्तिक में कहा है कि 'आत्यन्तिक दुःखों की निवृप्ति (मोक्ष प्राप्ति ) सम्यग्ज्ञान से होती है और वह ( सम्यग्धान ) निर्दोष द्वादशाङ्ग शास्त्रों
x 'शीतोपचारच्छेदी' क० । * श्रान्तश्च भोक्ता वमनश्वराई' ० 'गुल्मी जिहासुः कृतभोजनच' क० । १. समुच्चयालङ्कार २. हेतु अलंकार | ३. जाति अलङ्कार । ४. जाति थलङ्कार ।
५ तथा च सोमदेवसूरि :- अलवर स्येष तरस्नानं यत्र न सन्ति देवगुरुधर्मोपासनानि ॥१॥
६. देषान् धर्म पोपच्चरल व्याकुलातिः स्यात् । नीतिवाक्यामृत ( दिवसानुष्ठान समुद्देश) से संकलित — सम्पादक ७. तथा विद्यानन्द आचार्य:- अभिमतफलसिद्ध रभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शाखा सस्य बोत्पतिराहात् । न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरति ॥१॥ तत्वार्थपार्तिक पृष्ठ से संकलित । 4
इति प्रभवति स पूज्यस्वरप्रसाद प्रमुख