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________________ ३८६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये न च । आकृष्टोम्मुक्तमौर्वीव्यति करविनमव्यस्यदिवासनिर्यटकारस्फारसारसदयशपुरश्रेणिशीर्णप्रचारः । योधैर्युद्धप्रबन्धाइनवरतशरासारशीनुरः पातनः स्यन्दनोऽयं वदरणमदः स्ने सखेदं प्रयाति ॥४४॥ . खामोसकटोरकण्ठविगलस्कीलामधारोपुरस्कस्थाबसिराकरालकरणे रुण्डैर्भवत्ताण्डवैः । ५युद्धस्पर्धविबुदिविश्तव्यापारघोरावस्त देव द्विषतां मुहुः पुनरभूस्सन्यं सदैन्यं तव ॥४४॥ पपि व यत्र। सरिछन्नविकीर्णनगरपोसाकमुक्तस्वरप्रत्यारम्पनियुद्धरुपरमसाताप्सरःसंगः । भर्नुः कार्यविधायिधैर्यप्रतिभिधीरे रणप्राङ्गणे स्वर्गे च निदशस्वसिध्यसिकरादोमाञ्चितैः स्थीयते ॥४४२॥ तत्र विपुष्करका नाममायातालमापियानोनितो मह देश, स्वयमेव विजयवाईनसेनापसिना स्वस्तिवलोऽवसः कृतभृगापितमतिविहितरणरजापतिर्विघटितविशिष्टकरटिघटैर्भवदनीकसुभटैरता : करनेवाली हुई ? ||३|| जिस संग्राम में यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ऐसा सूर्य-रथ आकाश में संदसहित संचार कर रहा है, जिसका व्यापार (गमन) ऐसे धनुष से, जो कानों तक खींचकर ऊपर छोड़ी हुई धनुष-डोरी के प्रघटक ( संबंध ) से झुकता हुआ बाण छोड़ रहा है, निकलते हुए टंकारों (शब्दों) के प्रचुरतर ( महान् ) चल से भयभीत होते हुए व पराधीन हुए देव-समूहों द्वारा मन्द किया गया है अथवा नष्ट कर दिया गया है। जिसके घोड़े सुभटों ( वीर योद्धाओं ) द्वारा किये हुए संग्राम-प्रबन्ध के फलस्वरूप निरन्तर कीजानेवाली बाण-वृष्टियों द्वारा सैकड़ों टुकड़ेवाले (चूर-चूर ) होरहे हैं एवं जिसमें सूर्य-सारथि का अहसार नष्ट होरहा है ॥४४॥ हे राजन् ! आपकी वह शत्रु-सेना फिर भी ऐसे कवन्धों (शिररहित शारीरिक धड़ों) से पार वार अकिञ्चित्कर ( युद्ध करने में असमर्थ-नगण्य ) हुई, जिनके शरीर लोहमयी चकों द्वारा काटे गए कर्कश कण्ठों से प्रवाहित होनेवाली रुधिर-धाराओं से उत्कट हुए. स्कन्धों पर स्थित हुई सिराधों से भयङ्कर होरहे थे। जिनमें नर्तन उत्पन्न होरहा था एवं जिनकी एकाग्रता युद्ध-क्रोध से वृद्धिंगत बुद्धि में आरोपित हुए व्यापार (नियोग) से रौद्र (भयानक) होरही थी ||४४१३ तथा च-जिस युद्धाङ्गण पर ऐसे सुभट निश्चल होरहे हैं, जिनमें ऐसे कबन्धों (विना शिर के धड़ों) का वेग वर्तमान है, जो कि तत्काल में काटी गई व यहाँ वहाँ पृथिवी पर गिरी हुई और खून से मिश्रित ( लथपथ ) हुई गलों की नालों द्वारा उत्सुकता के साथ किये हुए शब्दों के साथ मण्डित होनेवाले बाहुयुद्धों से व्या है। जिनका (मुभटों का) देवियों के साथ संगम उत्पन्न हुआ है और जिनका धीरदा-पूर्ण सन्तोष स्वामी का कर्तव्य पूर्ण करनेवाला है एवं स्वर्ग-लोक में व संग्राम के अवसर पर देवताओं द्वारा किये हुए स्तुति के संबंध के फलस्वरूप जिनमें रोमाञ्च उत्पन्न हुए है ॥४२॥ अब 'प्रत्यक्षतार्य नामका गुप्तचर युधिष्ठिर महाराज के प्रति प्रस्तुल युद्ध-फल निरूपण करता है-हे राजन् ! उस महान् युद्ध में, जहाँपर, संग्राम में मरे हुए क्षाथियों के शुण्डादण्ड (B) रूपी नालों (कमलड़ियों) से विशाल चैताल-समूहों ( मृतक शरीरों में प्रविष्ट हुए व्यन्तरदेव-विशेषों ) द्वारा रुधिररूपी मथ पी जारही है, ऐसा शत्रुभूत अचल नरेश, जिसकी सामर्थ्य ( युद्धशक्ति या सैन्यशक्ति) 'विजयवर्धन' सेनापति द्वारा स्वयं ही नष्ट कर दी गई है और जिसका मन युद्धभूमि से भागने के लिए. [ उत्सुक ] होरहा था एवं जिसने संपाम फी जमघट विघटित ( नष्ट या दूर ) की है, श-इस्ति-समूहों को भगानेवाले आपके सुभटों द्वारा वाँध लिया गया है और हे देव! वह फेयल। "अयस्पर्विविद्धिविधुरम्यापारधोरादरैः । १. हेतु-अलङ्कार। १. गौडीया रीति (समासबहुलपदशालिनी पद-रचना) एवं अतिशयालकार । ३. रौद्ररस, गौदीया रीति व जाति-अलंकार । ४. रौद्ररस, गोलीया रीति एवं समुच्चयालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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