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________________ हतीय श्रावासः समानीसा स्वकीयसैन्यान्यजपाकनोवचनोमानस्फुरवीरवहस्तकटक विजयकवकम् । कदायित्कामिनीनां मदिरामोदमेतुरमुखमहसंपादिसौरभासु विलम्तीषु पकुलकलिकासु, दरानक्लयो देशदसप्रकारापेशलाप विकसन्तीषु सहेलियालरीषु, सुरतश्रमसंजातमलजाल कक्लिपित् विलसातीषु मान्दमवरीषु, दीर्घापालभत्रिसुभगेषु स्कुटर मलिकामुकुलेषु, कलगलारूसिलीलेषु समुच्छलस पिकपाककुलकोलाहलेषु, रिकुरतचिलचिरपरीकघरणचापलचलितविकच विवकिलमलमकरन्दस्यन्दसापि भवन्तीपु वनवयुधासु, विकटकुचामोगामारम्भिषु विराजत्नु माधवी कुसुमस्तबकेषु, कपोलक्रान्तिमाधुर्यस्पर्धिषु प्रबोधस्म मधुकपुष्पेषु, मृगमदरसारिकदेशार्धबन्यामिनयनवनखनिवेशप्रश्नयेषु पकासासु पकाराप्रसवमलेखु, धनषुख परमाणितमाभिहस्कान्तिवनतर फर्णिकारप्रसूमेषु, विभ्रमोशनभूप्रभावनिर्भरण धनुषा सैनप्रति कृतजगत्त्रो कममचापे, मखयोपशल्ययालीपछयोल्लासिनि माल्यवल्सचालतान्तामोदमासके बाँधा ही नहीं गया है, अपितु आपकी विजयकटक ( सैन्य ) में, जिसमें अपने सैन्य की संग्राम से उत्पम हुई विजयश्री के श्रवण से उत्पन्न रोमाञ्चों द्वारा वीरवधुओं के इस्त-कटक ( वलय) उल्लास-बश टूट रहे हैं, पकड़कर लाया गया है। अर्थात्--बाँधकर आपके पास लाया गया है। . प्रसङ्गानुवाद-अथानन्तर हे मारिदास महाराज ! मैंने अनेक अवसरों पर सुभाषित वचनों के पठन में निपुण व कामदेवरूपी पुष्परस से समस्त मनुष्यों के हृदय मल्लासित करनेवाले स्तुतिपाठक के सुभाषित बमन, जो कि कानों में अमृत-वृष्टि करते थे, अषण करते हुए किसी अपसर पर बसन्त चतु (चैत व पैसाख माह ) में कामदेव की आराधना की। वसन्त ऋतु संबंधी कैसी शोभा होनेपर मैंने कामदेव की आराधना की? अष स्कूल (मौलसिरी) वृक्ष की पुष्प-कलियाँ, जो उसप्रकार सुगन्धित थी जिसप्रकार. कामिनियों की मद्यसुगन्धि से स्निग्ध मुख-वायु सुगन्धित होती है, विकसित होरही थी। जब अशोकवृक्ष-मरियाँ (वल्लरियाँ), जो उसप्रकार की शोभा ( रक्तकान्ति ) से मनोहर थीं जिसप्रकार ओमप्रदेश पर स्थित हुए श्रोष्ठ शोभा ( रक्तकान्ति ) से मनोक्ष होते हैं, प्रफुल्लित होरही थी। जब आम्र-यलरियाँ, जिनकी लिपि ( अवयव ) सुरत-( मैथुन) श्रम से उत्पन्न हुए स्वेद-बिन्दु-समूह के सदृश थी, शोभायमान होरही थी। जब योर्घ नेत्र-प्रान्तभागों की रचना सरीस्त्री मनोज मालती-लताओं की अधखिली कलियाँ खिल रही थीं। जब कण्ठजितों की शोभावाली कोयल-समूहों की मधुर ध्वनियों उत्पन्न होरही भी। जब पनभूमियाँ ऐसे पुष्परस-सवरण से सरस होरही थीं, जो कि केश-क्रान्ति सरीखे मनोहर भोरों के चरणों की चालता से हिलनेवाले विकसित मुक्तबन्ध-पुष्पों से भर रहा था। जब सटे हुए फुधों (स्तनों) की शोमा प्रारम्भ करनेवाले माधवीलता (बसन्तीवेल ) के पुष्प-गुच्छे शोभायमाम होरहे थे। जब कपोनकान्तियों की मनोहरता तिरस्कृत करनेवाले बन्धुजीयक पुष्प विकसित होरहे थे। जब ऐसे किंशुकवृक्ष के पुष्प-कुइमल शोभायमान होरहे थे, जो ऐसे नवीन नखक्षतों के सटश थे, जिनमें तरल कस्तूरी से चित्रवर्णशाली एकदेशवाले अर्धचन्द्र की अभिव्यक्ति (शोभा) पाई जाती है। जब कणिकार ( कनेर) वृश-पुष्प, जिनकी कान्ति प्रचुर केसर-रस से अव्यक्त लालिमाशाली नाभिकुहर (छिन्) के सहश थी, उत्पन्न होरहे थे। जब तीन लोक को अश में करनेवाला कामदेव ऐसे धनुष से सनद्ध होरहा था, जो कि अपा( नेत्र-प्रान्तभाग) नर्तन से उन्नत हुई भृकुटि ( भोंहें) के प्रभाष से गाद (स ) था। जब दक्षिण दिशा से ऐसी [ शीतल, मन्द व सुगन्धित ] वायु का संचार होरहा था, जो मलयाचल की समीपवर्तिनी बल्लियों (लवानों के पालय उल्लासित करती हुई दक्षिणदिशावर्ती पर्वत के लता-पों की सुगन्धि से परिपुष्ट-वलिष्ठ होरही थी। जिसका वेग ( शीघ्र संचार ) किष्किन्धपर्यंत ( सुप्रीष-पर्वत ) संबंधी जशाली
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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