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________________ तृतीय भाश्वासः ३३५ आनय मवशमधुकर चिरावपुनरुक्त डिण्डिमान्करिणः । पश्य मम समरलीरिति मतिरिंग इति द्विषः ॥ २९८ ॥ आलाय मसकरिणोऽस्य मझवाइसौरभ्यमन्थरसुखानि दिगन्तराणि । नूनं+दिशाननोऽपि दिगम्वलामध्यासते द्विरदनेध्वरेषु कास्था ।। २९९ ।। मगन्धावरणविधेः प्रतिवारणसमरसंगमो भवतु । इति जातमतिः पदैरिव सिम्पत्ति सिन्धुरः कामम् ॥ ३०० ७ धेनुवं श्रयतरशु दिक्रटिनः क्षोणि स्थिरं स्थीयतां वायो संदूर चापलं शिखरिणः सर्वत्वमागच्छत । itsar free स्वमस्मिनिभेकोभेन्द्राः क धरा वदनः क्वैते च पूर्व नगाः ॥३०१ सिधरणिदेवी शिथिलितभूगोलकः फणीन्द्र इति धरमिनाथ कस्टी विटपिक समाभवति ॥ ३०५ ॥ पत्र गजैर्व३०३ ॥ राजन् ! आपका हाथी ऐसा मालूम पड़ता है— मानों इस बुद्धि से ही चिंधार रहा है ( आपसे ऐसा कह रहा है कि 'हे राजन् ! शत्रु हाथियों को, जिन्होंने मद (दानजल) की अधीनता से उत्पन्न हुई भोरों की विविध कार ध्वनियों द्वारा वादित्र-शब्द द्विगुणित ( दुगुने ) किये हैं, मेरे संमुख लाओ और मेरी युद्धकीदाएँ देखो' || २६८ || हे राजन् ! ऐसे दिशा-समूहों को, जिनके अप्रभाग आपके इस मदोन्मत हाथी के भद प्रवाह ( दान जलपूर की सुगन्धि से मन्थर ( व्याप्त या पुष्ट ) होचुके हैं, सँघकर ऐरावत आणि दिग्गज भी जब निश्चय से आठों दिशाओं के प्रान्तवर्ती महापर्वतों का सेवन कर रहे हैं ( प्राप्त होरहे हैं ) तब दूसरे ( साधारण ) शत्रु हाथियों के इसके सामने ठहरने की क्या आस्था ( आशा या श्रद्धा ) की जासकती है ? अपि तु नहीं की आसकती ॥२६६॥ हे राजम् ! ऐसा मालूम पड़ता हैमानों - आपका हाथी निम्नप्रकार की बुद्धि उत्पन्न करता हुआ ही अपना शरीर कदम-लित कर रहा है 'म (दानजल ) की सुगन्धि लुप्त करनेवाले मेरी शत्रु हाथियों के साथ युद्धभूमि पर भेंट हो ॥ ३० ॥ दे ऐरावत आदि दिग्गजो ! तुम शीघ्र हस्तिनीत्व ( इथिनीपन ) प्राप्त करो। हे पृथिवी ! निश्चल्तापूर्वक स्थिति कर दे वायु ! तुम अपनी चपलता छोड़ो और हे पर्वतो ! तुम लघुता ( छोटी आकृति ) प्राप्त करो । अन्यथा - यदि ऐसा नहीं करोगे । अर्थात्-यदि दिग्गज प्रस्थान करेंगे, पृथिवी स्थिर नहीं होगी, षायु अपनी चंचलता नहीं छोड़ेगी और पर्वत लघु नहीं होंगे तो इस समय यह आपका हाथी जब मदलक्ष्मी के साथ स्वच्छन्दतापूर्वक यथेष्ट कीया करेगा तब ऐरावत आदि दिग्गजेन्द्र कहाँ रह सकते हैं ? पृथिमी कहाँ पर ठहर सकती है ? वायु कहाँ पर स्थित रह सकती है ? और ये पर्यंत कहाँ स्थित रह सकते हैं? अपि तु कहीं पर नहीं, क्योंकि यह इन सबको चूर-चूर कर डालेगा ||३०१ || पृथिवीपति ! ऐसा मालूम पड़ता है - कि 'पृथिवी देवता उच्छूवास प्रहण करने लगे और शेषनाग भूमिपिण्ड को शिथिलित करनेवाला होकर उच्छवास प्रण करे इसीलिए ही मानों- -आपका हाथी वृक्ष- रन्ध (सना) का अच्छी तरह आश्रय कर रहा है ||३०२|| हे राजन् ! जिस स्तम्भ (आलानहाथी बाँधने का खंभा ) से हाथी बँधे हुए निश्चलता पूर्वक स्थित हुए हैं, वह स्तम्भ आपके इस [ बलिष्ठ ] हाथी के कपोलस्थलों के खुजानेमात्र के अवसर पर पुनः बल करने के अवसर की बात तो दूर हो है, नलदण्डता ( कमल-नालपन) धारण कर रहा है -- कमलनाल- सरीखा प्रतीव होरहा है ॥ ३०३ ॥ + 'दिशां कर दिनोऽपि क० । १. उत्प्रेक्षालंकार । २. अतिशयालंकार । ३. उत्प्रेक्षालंकार । ४ समुच्चय व अतिशयालंकार । समुच्चय व उत्प्रेक्षालंकार । ६. उपमालंकार । ५. दीपक,
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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