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________________ २३६ यशस्तिलकाये रिसाईमहत्वं दानगुणः स क मित्थमिदमास्ते । इति मत्वेव गजोऽयं रज्जुं बिसतन्तुतां नयति ॥ ३०४ ॥ विनंति कन्धरायासने खणणिति वल्लिका गलत विक्रमारम्भणि । डिति भज्यते तरुगणः कृताघट्टने खत्खदिसि वारण: पतति चात्र युद्यैषिणि ॥ ३०५ ॥ कमपि पुरोऽक करिभिर्वत्यस्त्रितकन्धरः स्थितं स्थास्तीः । अभिगच्हति पुनरस्मिव्रगणितीतैर्यधाय स्वरितम् ॥ ३०६ ॥ तो भवति णिति डिकाला मृणाम्। श्रीदति करेणुवर्गः प्रतिगजमभिहन्तुम संवृत्ते ॥३०७॥ aft करवीण सोय प्रकामं नमसि विततमार्गाः कर्णसाला मिलेन । प्रतिगजपतिजैश्रानन्तरं वीरलक्ष्मी विजयपताका डम्बरं विनतीव ॥ ३०८ ॥ वंशी महान त्रिरचिताः पुनश्यापारादपि दूरतो विनिहिताः कोऽयं प्रधावक्रमः । स्वामी जनाः कृतविस्तारी भूपते वीरं वीरमनेकधामत्रगती गृहपरं दृश्यते ॥ ३०९ ॥ हे देव! 'जिस पुरुष में स्वाभाविक महत्त्व (गुरुत्व - महत्ता) व दानगुण ( हस्ति-पक्ष में दान जल व में दानशीलता होता है. यह इसप्रकार राजु रस्सी) बन्धन-युक्त कैसे रह सकता है ?' ऐसा पुरुषपक्ष मानकर के ही आपका यह हाथी राज्जुबन्धन को मृणालतन्तुओं में प्राप्त करा रहा है ' ॥३२४ ॥ 1 हे राजन! आपका यह हाथी जब गर्दन ऊँची करता है तत्र रस्सी आदि के बन्धन तड़तड़ होते हुए टूट जाने हैं और जब यह पराक्रम आरम्भ करता है तब वल्लिका ( खलाबन्धन - दोवा आदि ) मान होती हुई शतखण्डोवाली होजाती है एवं जब यह कपोलस्थलोंकी खुजली दूर करने के हेतु वृक्ष समूह से घर्षण करनेवाला होता है तब वह वृक्षसमूह ममहायमान शब्द करता हुआ भग्न हो जाना है तथा जब वह युद्ध करने की कामनशील इच्छुक ) होता है तब शत्रुभूत हाथी खड़खड़ायमान होता हुआ धराशायी होजाता हूँ ||३३४|| हे राजन् ! आपके इस स्थितिशील ( खड़े हुए ) हाथी के शत्रुभूत हाथी. जिनकी गर्दन महावतों द्वारा बाँधी गई थी, महान् कष्टपूर्वक स्थित हुए और आपका हाथी जब शत्रुभून हाथियों के सम्मुख आता है तब वे ( शत्रुभूत हाथी ) अंकुशकर्म को न गिनते हुए यथा योग्य अबसर पाकर शीघ्र भाग गये ||२६|| हे राजन! जब आपका हाथी शत्रुभूत हाथी घात हेतु प्रवृत्त हुआ तब अंकुश कामदेव द्वारा किया हुआ सरीखा ( विशेष मृदुल ) शेजाता है और ताड़ित करनेवाजी अलाएँ गमन को रोकनेवाले-काष्ठयन्त्र ) कमल-मृणालता प्राप्त करते हैं । मृणाल सरीखे मृदुल हो जाते हैं एवं हाथियों व हथिनियों का झुण्ड दुःखी होजाता है ४ ॥३०७॥ हे राजन् ! आपके इस हाथी के ऊपर इसकी सूँड द्वारा फेंकी गई धूतियों इसके कानरूपी ताड़पत्तों की वायु से आकाश में विशेष रूपसे विस्तृत हुई ऐसी मालूम पड़ती हैं- मानों-शत्रु हाथियों को जीतने के अनन्तर बीरलक्ष्मी द्वारा इसके मस्तक पर आरोपण की गई विजयध्वजा का विस्तार धारण कर रही हैं ||३८|| हे राजन् ! जब तक ये ( सैनिक इसप्रकार विचार करते हैं कि 'यह युद्धभूमि अत्यन्त गुस्तर ( महान ) की गई है और वङ्ग आदि धारक परपुरुष नेत्रदृष्टि से भी दूर पहुँचाये गये हैं एवं यह युद्ध करनेका क्या मार्ग है ? तब तक आपका हाथी अकेला होकरके भी वीरपुरुष को ग्रहण करता हुआ ( अनेकसरीखा) देखा जाता है || ३ = ६ || x स रथमित्यमासन ४० । विक: परन्तु मु० प्रतिस्थः पाठः समीचीनोऽथ दशमात्राणां सद्भावेन छन्दश नानुकुन्दः सम्पादकः । F चेह' ० । १. उत्प्रेक्षालंकार। विमाकार । १. अतिशयालद्दार । ४. उपमालङ्कार ५. उत्प्रेक्षा । ६. उपमालङ्कार
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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