________________
२३१
तृतीय आश्वासः
दुःखाय देहजो व्याधिः सुखाय वनौषधिः । गुणाः कार्यकृतः पुंसां भोजने स्वपरक्रियाः ॥ ७३ ॥ निवासी निष्पक्षता आदि गुणों से विभूषित हुआ गुणवान् व्यक्ति भी राज्य संचालन आदि में सहायक होता हुआ मंत्री हो सकता है ।
विशद विवेचन एवं विमर्श – यहाँपर 'उपायसर्वज्ञ' नामका मन्त्री राजसभा में यशोधर महाराज से कह रहा है कि राजाओं को मन्त्री की सहायता से आरम्भ किये हुए कार्य ( सन्धि व त्रिमह आदि ) पूर्ण करके सुख प्राप्तिरूप प्रयोजन सिद्ध करना पड़ता है, अतः वह प्रयोजन जिससे सिद्ध हो सके वह चाहे स्वदेशवासी हो या परदेशवासी हो, मन्त्री हो सकता है। क्योंकि अपनी जाति या परजाति का विचार पक्तिभोजन की बेला में किया जाता है न कि राजनीति के प्रकरण में। तत्पश्चात् उसने विशेष मनोज व हृदयस्पर्शी उदाहरणों ( शारीरिक व्याधि दुःखद्देतु व जंगली जड़ी-बूटी रोगध्वंस द्वारा सुखहेतु है ) द्वारा उक्त विषय का समर्थन किया है परन्तु प्रस्तुत शानकर्ता आचार्यप्रवर श्री मत्सोमदेवसूरि ने अपने ही दूसरे नीव के गुओं का निर्देश करते समय 'स्वदेशवासी' गुण का भी विशेष महत्वपूर्ण समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में आचार्य श्री' ने लिखा है कि "बुद्धिमान राजा को या प्रजा को निम्नप्रकार गुणों से विभूषित प्रधान मन्त्री नियुक्त करना चाहिए । जो द्विज-- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवरण में से एक वर्ण का हो किन्तु शुद्ध न हो, अपने देश ( आर्यावर्त - भारतवर्ष ) का निवासी हो किन्तु विदेश का रहनेवाला न हो। जो सदाचारी हो- दुष्कर्मो में प्रवृत्ति करनेवाला न हो किन्तु पवित्र याचरण-शाली हो । जो कुलीन हो- जिसके माता और पिता का पक्ष ( वंश ) विशुद्ध हो ( जो कि विवाहित समान वर्णवाले माता-पिता से उत्पन्न हो ) । जो जुश्रा, मद्यपान व परस्त्री सेवन आदि व्यसनों से दूर हो। जो द्रोह करनेवाला न हो-जो दूसरे राजा से मिला हुआ न होकर, केवल अपने स्वामी में हो श्रद्धा युक्त हो । जो व्यवहार बिया में निपुण हो। जिसने समस्त व्यवहारशास्त्रों- नीतिशाओं के रहस्य का अध्ययन-मनन किया हो। जो युद्धविद्या में निपुण होता हुआ शत्रु-चेष्टा की परीक्षा में प्रवीण हो अथवा समस्त प्रकार के छल-कपट से रहित हो । जाननेवाला होने पर भी स्वयं कपट करने वाला न हो । अभिप्राय यह है नौ गुणों से विभूषित होना चाहिए ।
अर्थान् — दूसरे के कपट को कि प्रधान मन्त्री निम्रप्रकार
१. द्विज, २. स्वदेशवासी, ३. सदाचारी, ४. कुलीन, ५, व्यसनों से रहित, ६. स्वामी से द्रोह न करनेवाला, ७ नीतिज्ञ, ८. युद्धविद्या-विशारद और ९. निष्कपट ।
उक्त गुणों में से 'स्वदेशवासी' गुण का समर्थन करते हुए प्रस्तुत माचार्य श्रीमत्सोमदेवसूरि * उक्त ग्रंथ में लिखा है कि 'समस्त पक्षपातों में अपने देश का पक्षपात प्रधान माना गया है' एवं हारीत विद्वान ने भी लिखा है कि 'जो राजा अपने देशवासी मन्त्री को नियुक्त करता है, वह आपत्तिकाल आने पर उससे मुक्त हो जाता है'। अभिप्राय यह है कि राज सचित्र के उक्त ९ गुणों में से 'अपने देश का निवासी गुण की महत्वपूर्ण विशेषता है; क्योंकि दूसरे देश का मन्त्री अपने देश का पक्ष करने के कारण १. सथा च सोमदेवसूरिः — 'ब्राह्मणक्षत्रियविशा मेकतमं स्वदेशजमाचाराभिजन विशुद्धमन्य सनिनमन्यभिचारिणम धौताखिलव्यबहारतन्श्रमस्त्रशमशेषोपाधिविशुद्ध च मन्त्रिणं कु ॥
१. तथा व सोमदेवसूरिः समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान्
३, तथा च हारीत: 'स्वदेशजनमास्यं यः कुरुते पृथिवीपतिः । आपत्कालेन सम्प्राप्तेन स तेन विमुच्यते ||१||