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तृतीय आश्वासः
२१६ आगांचङ्गीरियं यावयेन चिन्ता कुसा पुरा । तदैवमुत्तरत्रापि जागरिष्यति धेहिनाम् ॥३०॥ एवमेव परं लोक क्लिश्नात्यात्मानमात्मना । यदन्न लिखित भाले तस्थितस्यापि जापते ॥३०॥ मधोनत्रिदिवैश्वये शेषस्योधरणे भुः । को नाम पौरुषारम्भस्सदन शरणं विधिः ॥३१॥ तस्मायथासुख देवः श्रियमानयतामिमाम् । रिक्तः सुखर्गतः कालः पुमन याति जन्तुपु ॥४॥ वार्सयापि हि शत्रूणां प्रक्षुभ्यसि ममोन्थुधिः । कस्तादृष्टिपणं कुर्यानरः कुम्भीनसानिव ॥४१॥ दुर्ग मन्दरकन्दराणि परिधिरते गोवधात्रीधराः नेयं ससपोधया स्त्रविश्यः स्वर्गः सुराः सैनिकाः । मन्त्री चास्य गुहस्तथाप्ययमगात्प्रायः परेषां वशं देवावपतिस्तत्र नूप किं सम्म मन्त्रेण वा ॥४॥ था नैव लभ्या त्रिदशानुवृत्या मनोरथैरप्यनवापनीया।
सा देव लक्ष्मी यायं हिनानाम सुन सौधे ॥५३॥ अतः मुझे दान-पुण्य-आदि धर्म का निरन्तर पालन करते हुए शिष्टपालन व दुष्टनिमहरूप राजकर्तव्य में प्रवृत्ति करनी चाहिए ॥ ३६॥ हे देव ! गर्भ से लेकर चली आनेवाली यह प्रत्यक्ष प्रतीत राज्यलक्ष्मी जिस पूर्वोपार्जित पुण्य द्वारा उपस्थित की गई है, वही पुण्य ( दैव) आगामी काल में भी प्राणियों के लिए लक्ष्मी उत्पन्न करने के लिए जाप्रत ( सावधान) होगा ॥३७॥ हे राजन् ! यह लोक (मानव-वगैरह प्राणी) [नाना प्रकार के पुरुषार्थ उद्योग द्वारा केवल अपनी आत्मा को स्वयं व्यर्थ ही क्लेशित (दुःखी) करता है, क्योंकि इस संसार में जो प्राणियों के मस्तक पर लिखा गया है ( जो सुखसामग्री भाग्य द्वारा प्राप्त होने योग्य है) वह उद्यम-हीन मानव को भी प्राप्त होजाती है। १३ हे राजन् ! इन्द्र को स्वर्ग का राज्य करने में और धरणेन्द्र को पृथिवी को मस्तक पर धारण करने में कौन से पुरुषार्थ (उद्योग) का आरम्भ करना पड़ता है ? अपि तु किसी पुरुषार्थ का आरम्भ नहीं करना पड़ता। अतः इस संसार में प्राणियों के लिए देव ( भाग्य) ही शरण ( दुःख दूर करने में समर्थ ) है' ॥३६॥ इसलिए हे राजन् ! प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली इस राज्यलक्ष्मी को सुख का उल्लन न करके भोगिए। क्योंकि जो सुख भोगने का समय (युवावस्था-आदि) सुखों के विना निकल जाता है, वह प्राणियों को पुनः प्राप्त नहीं होता" |४||
हे राजन् ! जब शत्रुओं के केवल वृत्तान्त मात्र से भी मनरूपी समुद्र क्षुब्ध (व्याकुलित ) हो जाता है तब सर्पो के समान महाभयङ्कर उन शत्रुओं को कौन पुरुष नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर करेगा ? 'अपितु कोई नहीं करेगा ॥४१॥ हे राजन् ! जब कि यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाला ऐसा देवताओं का इन्द्र देव से (पाप कर्म के उदय से) प्रायः करके पराधीन होगया, यद्यपि उसके पास महान सैन्य-आदि शक्ति वर्तमान है। हवाहरणार्थ-सुमेरुपर्वत के मध्यभाग या गुफाएँ हो जिसका [ अभेन] दुर्ग (किला) है। वे जगत्प्रसिद्ध इसापल दी जिसकी परिधि ( कोट) है। सात समुद्र ही जिसकी खातिका (साई) है । स्वर्गलोक ही जिसका निजी राष्ट्र है। देवता जिसके सैनिक हैं और बृहस्पति ही जिसका बुद्धिसचिष है, इसलिए इस संसार में [ भाग्य के प्रतिकूल होने पर ] सैन्य-शक्ति से क्या लाभ है ? अथवा पञ्चाङ्ग मन्त्र से भी कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? थपिनु कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। श्रतः संसार में देव (पूर्वजन्म-कृव पुण्य ) ही प्रधान है॥४२॥ हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध प प्रत्यक्षप्रतीत होनेवाली ऐसी राज्यलक्ष्मी, जो कि न तो देवताओं की सेवा द्वारा प्राप्त हो सकती है. और न मनोरथों द्वारा प्राप्त होने योग्य है, जब भापको स्वयं
*"क्लिश्यस्यात्मानमात्मना' का। श्रियं मानयतामिमा का।
१. समुदयालंकार । २, अनुमानालंकार । ३. अनुमानालंकार ! ४, आक्षेपालंकार । ५. अनुमानालंकार । ६, भाक्षेप व उपमालंकार । ५. समुख्यालंकार ।